Jaunpur News : जौनपुर के डेहरी गांव में 60 साल के नौशाद अहमद रहते हैं. लेकिन गांव वाले, नौशाद मियां को दुबे जी कह कर बुलाते हैं. सिर्फ नौशाद ही नहीं बल्कि गांव के अशरफ और शिराज भी अपने नाम के आगे दुबे और शुक्ला लगाते हैं. नौशाद बड़े चाव से बताते हैं कि वो मुस्लिम ब्राह्मण हैं. वो तिलक भी लगाते हैं और वजू भी करते हैं. नौशाद दुबे, गौ सेवा भी करते हैं. वो बताते हैं कि लगभग 7 पीढ़ी पहले उनके पूर्वजों ने धर्म बदल लिया था.
ADVERTISEMENT
धर्म से मुसलमान, नाम में दुबे और शुक्ला
यूपी तक की टीम जौनपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर केराकत के डेहरी गांव में पहुंची. वहां हमारी मुलाकात नौशाद, अशरफ और शिराज से हुई. अमूमन खान, अंसारी, शेख, आजमी और जैसे टाइटल मुसलमान में सुनने को मिलते हैं . लेकिन जब यहां पर लोगों से बातचीत की गई तो पता चला कि नौशाद भाई का पूरा नाम नौशाद अहमद दुबे है, अशरफ को लोग अशरफ दुबे बुलाते हैं तो वहीं शिराज को शिराज शुक्ला कहते हैं .
नौशाद में बातचीत के दौरान बताया कि, 'उनके पूर्वज बताते थे कि वो ब्राह्मण थे. वो लोग ब्राह्मण से कन्वर्ट होकर मुसलमान हो गए थे. नौशाद कहते हैं कि फिर वो अपनी जड़ों को पहचानने के लिए निकल पड़े. इस दौरान उन्हें मालूम हुआ कि 7 पीढ़ी पहले उनके पूर्वज लाल बहादुर दुबे धर्म परिवर्तन कर लाल मोहम्मद शेख और लालम शेख हो गए थे.'
पूर्वज ने बताई ये कहानी
इन्हें बचपन से इस बात का आभास हो गया था कि हमारी जो कास्ट है जैसे शेख , 'पठान या सैय्यद जो लिखते हैं वो हमारी नहीं है बल्कि उधार की ली हुई है. फिर वो जड़ से जुड़ने लगे. नौशाद दुबे को घर के बड़ों ने बताया था कि उनके पूर्वज दुबे थे. जो रानी की सराय आजमगढ़ से यहां जौनपुर में रहने आए थे. तो उनको इस बात की पहले से जानकारी थी कि पूर्व में हम लोग ब्राह्मण थे. इसके बाद वो अपने नाम में दुबे लगाने लगे.'
नौशाद कहते हैं कि, 'लोग उनसे सवाल करते हैं कि अपने नाम के आगे दुबे क्यों लिखते हैं? वह उन लोगों से पूछते हैं कि वह अगर अपने नाम के आगे दुबे नहीं लिखे तो और क्या लिखे. लोगों के पास इस बात का जवाब नहीं होता. उल्टा नौशाद दुबे पूछ लेते हैं कि अरबी टाइटल है शेख, तुर्कियों का टाइटल है मिर्जा, मंगोल या मुगलों का टाइटल हैं खान. तो हम उनका टाइटल क्यों अपनाएं. मेरे पास अपना टाइटल है और मैं अपने टाइटल को अपनाऊंगा. मैं अपनी जड़ों से अपनी चीजों को ले रहा हूं, हमें उधार की चीज लेनी छोड़ देनी चाहिए.'
धार्मिक समरसता की बात पर नौशाद कहते हैं कि, 'धर्म को मानने वाले के अंदर पहली चीज मानवता होनी चाहिए. किसी के प्रति कोई नफरत नहीं होनी चाहिए. उदाहरण देते हुए नौशाद दुबे बताते हैं कि पैगंबर साहब का नाम गलत तरीके से लेने पर लोग सर तन से जुदा करने की बात करते हैं. उन्हीं मोहम्मद साहब को उनके अनुयायियों के सामने गाली दी जाती थी और कीचड़ फेंका जाता था लेकिन वो आक्रोशित नहीं होते थे.'
तिलक भी लगाते हैं और करते हैं गौ सेवा
नौशाद दुबे कहते हैं कि, तिलक लगाने से उन्हें कोई एतराज नहीं है, 'पूजा में उनकी आस्था एक ईश्वर की आस्था है. वो कहते हैं कि ईश्वर चाहे किसी भी नाम से आ जाए मुझे कोई एतराज नहीं है. नौशाद दुबे गौ सेवा भी करते हैं. वो कहते हैं कि, 'ये भारतीयता की पहचान है. किसानी और गौपालन. नौशाद दुबे बताते हैं कि उनके पास लगभग 7 गाय हैं. वो गाय का दूध पीते हैं. मोहम्मद साहब कहते थे की गाय का दूध खाओ वो दवा है, उसका घी खाओ वह अमृत तुल्य है, लेकिन उसके मांस से बचो ये बीमारी है. वो मुसलमान कितना जानकर हो गया है कि गाय का मांस खाने के रूप में अपने प्रसिद्धि को प्राप्त किया है. वह कहते हैं कि मैं सच्चे इस्लाम धर्म को मानता हूं. इसलिए मैं गाय को पाला हूं और उसका दूध और घी खाता हूं.' नौशाद कहते हैं कि वह अपने आप को मुस्लिम ब्राह्मण कहने में खुशी महसूस करते हैं . इसलिए उन्हें नौशाद अहमद दुबे कहा जाए.
बातचीत में नौशाद ने ये भी बताया कि, 'कई बार उनके खिलाफत में फतवे भी जारी हुए. जब वह अपनी बच्चियों को उच्च शिक्षा के लिए भेज रहे थे तो धर्म के जानकार इस्लाम का हवाला दे रहे थे. वह लोग कह रहे थे कि इस्लाम इस बात की अनुमति नहीं देता. लेकिन नौशाद अहमद दुबे ने उन सभी लोगों को जवाब भी दिया. नौशाद अहमद दुबे ने कहा कि आपका इस्लाम इस बात की इजाजत नहीं देता होगा लेकिन मेरा इस्लाम इस बात की अनुमति देता है. इसके बाद उन्होंने अपनी बच्चियों को पढ़ाया. वो बताते हैं कि उनकी बच्चियों पढ़ने में टॉपर भी थी. एक ने एलएल.एम तो दूसरी ने बीएससी किया.'
इस गांव में सिराज नाम के आगे लिखते हैं शुक्ला
वहीं डेहरी गांव के सिराज अहमद से ने भी हमसे बातचीत की. कैमरे पर बोलने से पहले सिराज को थोड़ी हिचकीचाहट जरूर हुई. लेकिन जब धड़क खुली तो सिराज अहमद ने बताया कि,' उनके पूर्वज शुक्ला थे. शुक्ला में भी भार्गव गोत्र था. वो कहते हैं कि लगाने में क्या मुश्किल है. जब हम लोगों को पता चला कि हम लोग किस बिरादरी से कन्वर्ट हुए हैं तो उसमें क्या बुराई है. कश्मीर , पंजाब और हरियाणा में बहुत से मुस्लिम लगाते हैं. हम लोग अपनी जड़ से जुड़ रहे हैं. वह बताते हैं कि उनके वालिद कहते थे कि हम लोग आजमगढ़ के सियपुर से आके बसे हैं. उनके खानदान में कई लोगों ने इस बात का जिक्र किया हम लोग वहां पर पंडितों में शुक्ला थे.'
21 साल के अशरफ बड़े चाव से कैमरे के सामने बताया कि, 'उनका नाम अशरफ दुबे है. अशरफ कहते हैं कि भारत का हर नागरिक भारत का ही है. हम लोग कोई अरब सागर से तो आए नहीं. हमारे पूर्वज पहले ब्राह्मण थे तो हम लोगों को इसकी जानकारी थी नहीं, जब से हम लोगों को पता चला है तब से हम लोग अपने नाम के आगे दुबे लग रहे हैं. दुबे लगाने से आखिर क्या आपत्ति है अब या तो कोई दलील पेश की जाए कि दुबे मत लगाओ... मजाक में लोग चिढ़ाते हैं दुबे-दुबे बुलाते है .. लेकिन मैनेज कर लेते हैं.'
अपने जड़ों की तलाश कर रहे लोग
नौशाद दुबे सोशल मीडिया पर भी काफी एक्टिव हैं. बांग्लादेश में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार को लेकर नौशाद दुबे कहते हैं कि इस्लाम ने हमें सिखाया कि आप अपनी जरूरत से ज्यादा पानी भी मत बहाइए, फिर कौन से मुसलमान हैं जो इस्लाम के नाम पर खून बहा रहे हैं. किस इस्लाम को आप मानते हैं, क्या इस्लाम आपको यही शिक्षा देता है. नौशाद बताते हैं कि आजमगढ़ जौनपुर और मऊ मिलाकर लगभग 100 से ऊपर लोग ऐसे हो चुके हैं जिनकी जड़ें खोजी जा चुकी हैं.जो यह बताते हैं कि वह दुबे हैं तिवारी हैं, पांडे हैं या यादव हैं लेकिन उनमें से कुछ लोग अपने आधार को चेंज कराने की हिम्मत रखते हैं. जो झेलना पड़ रहा है वह सारे लोग नहीं झेल पाते.
नौशाद अहमद दुबे के यहां 10 नवंबर को निकाह था.उन्होंने निकाह का कार्ड हिंदी में छपवाया हुआ था, नाम में दुबे लगाया था. वो कहते हैं कि मुसलमान में कार्ड या तो अंग्रेजी में या तो उर्दू में छपता में है. भले ही पूरी उर्दू कोई ना पढ़ पाए . तो आखिर हिंदी से इतनी नफरत क्यों. हम भारतीय हैं और हमारी राष्ट्र भाषा और मातृ भाषा हिंदी है. मैंने अपना नाम भी पूरा दिया की मैं नौशाद अहमद दुबे हूं और मेरी जड़ें ब्राह्मणों से जुड़ी हुई है. इसको लेकर तमाम दिक्कत हुई लेकिन उन्होंने सभी को जवाब दिया.
ADVERTISEMENT