जब रात में दरवाजे पर हुई दस्तक और बदल गई ‘किस्मत’, किस्सा मायावती का

साल 1977. सर्दियों की एक रात, 9 बजे के बाद का वक्त. IAS अधिकारी बनने की चाह रखने वाली एक 21 साल की स्कूल टीचर…

UPTAK
follow google news

साल 1977. सर्दियों की एक रात, 9 बजे के बाद का वक्त. IAS अधिकारी बनने की चाह रखने वाली एक 21 साल की स्कूल टीचर खाना खाने के बाद आधी रात तक पढ़ाई करने वाली थी. घर के बाकी लोग सोने की तैयारी में थे. इसी बीच किसी ने जोर से घर का दरवाजा खटखटाया.

यह भी पढ़ें...

जब स्कूल टीचर ने दरवाजा खोला, तो वह चौंक गई. दरअसल, सामने दलितों के बीच लोकप्रिय बामसेफ नेता कांशीराम (जिन्होंने 1984 में बीएसपी की स्थापना की) खड़े थे. कांशीराम के इस अप्रत्याशित आगमन से स्कूल टीचर का परिवार भी काफी रोमांचित था.

कांशीराम ने बिना वक्त बर्बाद किए, बड़ी संख्या में रखी किताबों की तरफ इशारा करते हुए स्कूल टीचर से पूछा, ”लगता है तुम बहुत सारी किताबों को पढ़ने में व्यस्त हो! इतनी पढ़ाई के बाद क्या बनना चाहती हो?’ महिला ने जवाब दिया, ”मैं IAS एग्जाम पास करने और कलेक्टर बनने के लिए पढ़ रही हूं ताकि मैं ठीक से अपने समुदाय की सेवा कर सकूं.”

इस पर कांशीराम ने कहा, ”मुझे लगता है कि तुम बड़ी गलती कर रही हो.” कांशीराम ने यह बात जिस महिला से कही थी, वह आज बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की अध्यक्ष हैं और 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बन चुकी हैं. जी हां, यहां बात मायावती की हो रही है.

अजय बोस की किताब ‘बहनजी’ में बताया गया है कि उस वक्त कांशीराम ने मायावती को समझाते हुए कहा था कि उन्हें लगता है कि वह कलेक्टर बनकर अपने समुदाय की सेवा नहीं कर पाएंगी. कांशीराम ने कहा था कि कलेक्टर और दूसरे सरकारी अधिकारी, भले ही वो राज्यों में हों या केंद्र में, केवल सत्ताधारी पार्टियों और नेताओं के आदेश ही मानते हैं.

कांशीराम ने कहा, ”हमारे समुदाय ने हाल के सालों में कई कलेक्टर और अधिकारी तैयार किए हैं, लेकिन हम इन कलेक्टरों और अधिकारियों के लिए सही दिशा में इशारा करने के वास्ते सही तरह के राजनीतिक नेताओं को नहीं दे पाए हैं.”

और तभी कांशीराम ने कुछ ऐसा कह दिया कि जिसने न सिर्फ मायावती को चौंका दिया, बल्कि उनके पिता को पूरी तरह से झकझोर दिया.

”तुम्हारा साहस, दलितों के लिए समर्पण और कई दूसरे गुण मेरी जानकारी में आए हैं. मैं तुम्हें एक दिन इतना बड़ा नेता बना सकता हूं कि एक नहीं बल्कि कलेक्टरों की एक पूरी कतार आदेशों के इंतजार में तुम्हारे सामने फाइलों के साथ खड़ी होगी. तब तुम सही मायने में समुदाय की सेवा कर सकती हो.”

मायावती से कांशीराम

दरअसल, कांशीराम को उनके फॉलोअर्स ने, सितंबर 1977 में दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब की एक सभा में जनता नेता राज नारायण को मायावती की ओर से साहसिक तरीके से झिड़के जाने के बारे में बताया था. मायावती के बारे में और पूछताछ करने के बाद कांशीराम का उत्साह बढ़ गया था क्योंकि उन्हें अपनी मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए एक नए तरह के नेता की जरूरत थी. उस दौरान मायावती एक तेजतर्रार वक्ता होने की ख्याति हासिल कर चुकी थीं, लेकिन वह औपचारिक तौर पर किसी संगठन से नहीं जुड़ी थीं.

उस रात कांशीराम ने मायावती के घर करीब एक घंटा बिताया और कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा की. मायावती के पिता प्रभु दास, जो राजनीतिक रूप से काफी जागरूक थे, ने भी इस चर्चा में हिस्सा लिया. कांशीराम के आगमन को लेकर उनके मन में दो राय थीं:

  • यह निश्चित रूप से परिवार के लिए एक बड़ा सम्मान था कि एक बड़े नेता ने मायावती की काफी तारीफ की.

  • मगर जिस तरह से कांशीराम उनकी बेटी को IAS एग्जाम के आजमाए हुए रास्ते से दूर कर रहे थे, उसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया.

मायावती उस वक्त स्कूल में पढ़ाने के अलावा दिल्ली यूनिवर्सिटी से LLB भी कर रही थीं.

दिल्ली की झुग्गी झोपड़ी कॉलोनी में पली-बढ़ी थीं मायावती

मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को दिल्ली के लेडी हार्डिंग अस्पताल में हुआ था. उनके पिता प्रभु दयाल एक सरकारी क्लर्क और माता रामरती देवी (जो पढ़ी-लिखी नहीं थी और) गृहिणी थीं. प्रभु दयाल की सरकारी नौकरी के कारण उनका परिवार दिल्ली चला गया था. दरअसल मायावती का पैतृक परिवार उत्तर प्रदेश के बादलपुर गांव से ताल्लुक रखता है, जो तब गाजियाबाद जिला में आता था, लेकिन बाद में यह गौतमबुद्धनगर जिले का हिस्सा बन गया.

मायावती दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के इंद्रपुरी की झुग्गी झोपड़ी (जेजे) कॉलोनी में पली-बढ़ीं. दयाल दंपती और उनके नौ बच्चे- मायावती की दो बहनों और 6 भाई समेत – छोटे से घर में रहते थे.

जब मायावती मिडिल स्कूल में थीं, तब उन्होंने अपने पिता से पूछा था कि क्या लोग उनकी तारीफ और सम्मान करेंगे, अगर वह भी भीमराम अंबेडकर की तरह सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ें.

इस पर मायावती के पिता ने कहा था, ”बेशक तुम भी बाबा अंबेडकर की तरह बन सकती हो, लेकिन पहले तुम्हें स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई खत्म करनी होगी, फिर IAS की परीक्षा पास करनी होगी, कलेक्टर बनना होगा और तभी एक सरकारी प्रभावशाली महिला के रूप में तुम समाज में उठ पाओगी और अपने समुदाय के लिए लड़ पाओगी. तभी तुम्हें सफलता और प्रसिद्धि मिलेगी.” तभी से IAS अधिकारी बनना मायावती का लक्ष्य बन गया था.

मगर कांशीराम की बातों ने मायावती को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया. कांशीराम ने मायावती को इतना बड़ा महसूस कराया था, कि उन्होंने इससे पहले वैसा कभी महसूस ही नहीं किया था. धीरे-धीरे मायावती कांशीराम की मुहिम की तरफ बढ़ने लगीं.

इस बीच, प्रभुराम ने सबसे पहले मायावती को राजनीतिक सक्रियता के अपने जुनून को छोड़ने के लिए मनाने की कोशिश की. जब वह इसमें सफल नहीं हुए तो उन्होंने सुझाव दिया कि अगर मायावती वास्तव में एक राजनेता बनने के लिए दृढ़ हैं, तो उन्हें कम से कम कांग्रेस जैसी स्थापित पार्टी में शामिल होना चाहिए, जिसके पास पर्याप्त संसाधन और नेशनल प्रोफाइल हो. मगर मायावती ने यह बात भी नहीं मानी.

कुछ सालों तक मायावती और उनके पिता के बीच इस मुद्दे पर रस्साकशी चलती रही. इस दौरान उनकी स्कूल टीचर की नौकरी और LLB की पढ़ाई भी जारी रही. इसी बीच, एक दिन बात इतनी बिगड़ गई कि मायावती के पिता ने उनसे कहा, ”या तो तुम कांशीराम से मिलना बंद कर दो, इस मूर्खतापूर्ण राजनीति को छोड़ दो और फिर से IAS परीक्षा की तैयारी शुरू कर दो, या फिर मेरा घर तुरंत छोड़ दो.” इसके बाद मायावती ने बिना वक्त गंवाए अपनी नौकरी से जमा किया हुआ पैसा लिया, कुछ कपड़े पैक किए और घर से बाहर चली गईं.

उस वक्त कांशीराम एक दौरे पर शहर से बाहर थे. ऐसे में मायावती ने करोल बाग स्थित बामसेफ के ऑफिस में शरण ली. हालांकि, कांशीराम जल्द ही वापस आ गए. मायावती ने उन्हें अपने और राजनीति के लिए अपना घर छोड़ने के फैसले के बारे में बताया. बस यहीं से मायावती के राजनीतिक सफर का वो दौर हुआ जो वक्त के साथ आगे बढ़ता ही गया. कई चुनौतियों का सामना करने के बावजूद मायावती से वहां से पीछे मुड़कर नहीं देखा.

कब-कब यूपी की मुख्यमंत्री रहीं मायावती?

1995 में बीएसपी और समाजवादी पार्टी (एसपी) का गठजोड़ टूटने के बाद जब मुलायम सिंह की अगुवाई वाली सरकार गिरी तो मायावती भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का बाहरी समर्थन हासिल कर उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं.

फिर जब 1996 के विधानसभा चुनाव हुए तो कोई पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, ऐसे में कुछ वक्त तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा. अप्रैल 1997 में, 174 विधायकों वाली बीजेपी का 67 सीट जीतने वाली बीएसपी के साथ एक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत 6-6 महीने के अंतराल पर दोनों पार्टियों से एक-एक मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बनी. इसके तहत मायावती पहले 6 महीने मुख्यमंत्री रहीं.

2002 के विधानसभा चुनाव के बाद भी जब कोई पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, तो मार्च से लेकर मई 2002 तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद बीजेपी ने बीएसपी को समर्थन दिया और मायावती तीसरी बार राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. मगर इस सरकार के सामने लगातार चुनौतियां आती रहीं, ऐसे में मायावती ने अगस्त 2003 में इस्तीफा दे दिया.

2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने अपनी ‘सवर्ण विरोधी’ छवि से बाहर निकलते हुए दलित-ब्राह्मण भाईचारे के साथ सोशल इंजीनियरिंग का एक नया फॉर्मूला अपनाया. इस चुनाव में बीएसपी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ और साल 2012 तक मायावती की अगुवाई में सरकार चली.

मायावती के सामने अब है ये बड़ी चुनौती?

मायावती के राजनीतिक सफर की शुरुआत भले ही दलितों और शोषित-वंचित वर्गों के हित में काम करने के वादे के साथ हुई हो, लेकिन उन पर अपनी और पार्टी की छवि चमकाने के लिए फिजूखर्ची करने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने जैसे तमाम आरोप भी लगते रहे हैं. मायावती की पार्टी बीएसपी साल 2012 से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर है.

2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीएसपी को 403 सीटों में से महज 80 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. 2017 में तो उसका प्रदर्शन और ज्यादा खराब रहा, जब पार्टी के खाते में सिर्फ 19 सीटें ही आईं. इसके बाद बीएसपी 2019 के लोकसभा चुनाव में एसपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी, लेकिन यह रणनीति भी उसके लिए कुछ खास कारगर साबित नहीं हुई.

द हिंदू-सीएसडीएस-लोकनीति पोस्ट-पोल सर्वे के मुताबिक, 2019 में बीएसपी अपने मूल जाटव वोट (उनमें से तीन-चौथाई से ज्यादा ने महागठबंधन को वोट दिया) पर तो पकड़ बनाए रखने में कामयाम रही, लेकिन वो गठबंधन के लिए गैर-जाटव दलितों के समर्थन को सुनिश्चित करने में नाकाम रही, क्योंकि उनमें से लगभग आधों (48%) ने, 2017 की तरह, बीजेपी उम्मीदवारों को वोट दिया.

ऐसे में अब मायावती के सामने बड़ी चुनौती यह है कि वह अपनी पार्टी के मूल वोटबैंक में सेंधमारी रोकने के साथ-साथ उसे यूपी की सियासत में कम से कम उसका पुराना कद वापस दिलाएं.

छोरियां छोरों से कम हैं के? जब मायावती ने पिता को समझाई थी ये बात

    follow whatsapp