‘केवट, मल्लाह, बिंद, कश्यप, कहार, धीवर, बियार, बाथम’
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पिछले दिनों निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद जब आजतक के कार्यक्रम में आए तो उन्होंने एक सुर में इन जातियों का नाम लिया. बात जब यूपी चुनाव की हो तो ये महज जातियां नहीं रह जातीं, बल्कि वोट के छोटे-छोटे पॉकेट हो जाती हैं, जो किसी विधानसभा सीट की तस्वीर बदलने की हैसियत भी रखती हैं. और यही संजय निषाद की ताकत भी है. शुक्रवार को बीजेपी और निषाद पार्टी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में आधिकारिक रूप से यह ऐलान कर दिया गया कि दोनों दल गठबंधन में विधानसभा चुनाव लड़ेंगे.
संजय निषाद 2019 से ही एनडीए के साथ हैं, लेकिन सीटों को लेकर उनकी मांगों के साथ संतुलन नहीं बैठा पाने की वजह से गठबंधन का ऐलान नहीं हो पा रहा था. हालांकि सीटों के बंटवारे का सवाल अभी अनुत्तरित ही है, लेकिन दोनों दलों का गठबंधन जरूर हो गया है. अब बड़ा सवाल यह है कि क्या संजय निषाद 2022 में बीजेपी की चुनावी नैया के खेवनहार बन पाएंगे? आखिर क्यों हो रही है इस गठबंधन की इतनी चर्चा? आइए समझते हैं.
निषाद (NISHAD) पार्टी यानी निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल: NISHAD पार्टी भले निषाद वोटों की राजनीति करने वाले दल के रूप में जानी जाती हो, लेकिन इसके नाम में निर्बल, इंडियन, शोषित, तीन शब्द हैं, जिनका अर्थ इतना व्यापक है कि संजय निषाद के हिसाब से देखें तो इसमें वास्कोडिगामा और कोलंबस तक समाहित हैं. संजय निषाद के दफ्तर में इन दोनों नाविक यात्रियों की भी तस्वीरें हैं और उनका कहना है कि जल से जिनकी आजीविका चलती है वह सभी निषादवंशी हैं. संजय निषाद कहते हैं कि जल पर शासन करने वाले सभी निषाद हैं.
बीजेपी को फायदा कितना? इसे ऐसे समझिए कि नुकसान कितना हुआ था
बीजेपी और निषाद पार्टी के गठबंधन से क्या समीकरण बन रहे हैं, इसे समझने के लिए हमें करीब तीन साल पीछे लौटना होगा. साल था 2018 और मौका था गोरखपुर लोकसभा सीट पर उपचुनाव का. योगी आदित्यनाथ इस सीट से लगातार 5 बार सांसद रहे थे. उससे पहले उनके गुरु अवैद्यनाथ ने 1989 से यह सीट जीती थी. यानी एक तरह से इस सीट पर गोरखनाथ पीठ के महंतों का ही राज था. 2018 में समाजवादी पार्टी ने संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद को उम्मीदवार बनाया. फिर निषाद वोटों का खेल हुआ और बीजेपी का यह गढ़ उसके हाथ से निकल गया.
हालांकि यह स्थिति ज्यादा दिन तक नहीं रही. 2019 के आम चुनावों में संजय निषाद बीजेपी के साथ हो गए और यह सीट एक बार फिर बीजेपी के पास चली गई. ऐसा माना जाता है कि गोरखपुर में निषाद वोटों की संख्या करीब साढ़े 3 लाख है. जाहिर तौर पर 2018 के उपचुनाव में इस वोटर समूह का असर देखा गया था, जब निषाद वोट जाने से बीजेपी ने मठ के गढ़ वाली सीट गंवा दी थी.
अब फायदा समझिए: निषाद वोटों का असर सबसे ज्यादा पूर्वी यूपी में है. यहां की कई विधानसभा सीटों पर यह वोट बैंक समीकरण बदलने की हैसियत रखता है. द हिंदू की एक रिपोर्ट के मुताबिक संजय निषाद के दावों को मानें तो वह कहते हैं कि यूपी की सभी 403 विधानसभा सीटों पर निषाद या निषाद समाज की अन्य उपजातियों के 15 से 20 हजार वोट हैं. वह कहते हैं कि 70 सीटें तो ऐसी हैं, जहां पार्टी जीत-हार तय कर सकती है. इन सीटों पर वह 40 से 70 हजार अपने वोटर्स होने का दावा करते हैं. कुल मिलाकर उनका दावा है कि प्रदेश की 160 सीटें ऐसी हैं जहां वह समीकरण बदनले का माद्दा रखते हैं.
नॉन यादव ओबीसी और एससी, दोनों वोट हैं इनके दायरे में
संजय निषाद तो दावा करते हैं कि यूपी में 18 फीसदी आबादी निषादों की है. हालांकि जबतक जातिवार जनगणना नहीं होती, इसपर सटीक तौर से कुछ नहीं कहा जा सकता. मोटे तौर पर एक अनुमान है कि यूपी के कई जिलों में निषाद आबादी 14 फीसदी या उससे अधिक है, जो अलग-अलग उपजातियों में बंटी है. यूपी में निषाद समुदाय से ताल्लुक रखने वाली मंझवार, गोड़, खरवार और कोली जैसी जातियां अनुसूचित जाति में शामिल हैं. इसके अलावा आजतक के कार्यक्रम में एक सुर में संजय निषाद ने जिन जातियों का जिक्र लिया, मसलन केवट, मल्लाह, बिंद, कश्यप आदि ओबीसी में आती हैं. संजय निषाद की मांग है कि अखिलेश सरकार में इन जातियों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने का नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया था, तो उन्हें अब यह अधिकार मिलना चाहिए.
इस हिसाब से देखें तो निषाद राजनीति एक साथ ही गैर यादव ओबीसी और अनुसूचित जाति के वोटों के प्रभावित करती दिखाई देती है. सीएसडीएस के मुताबिक 2019 के चुनावों में एनडीए को कुर्मी-कोईरी के 80 फीसदी वोट और अन्य ओबीसी के 72 फीसदी वोट मिले थे. यानी गैर यादव ओबीसी वोटबैंक बीजेपी के लिए सत्ता की सीढ़ी बने. इस सीढ़ी की राह निषाद पार्टी के संजय निषाद और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर जैसे नेताओं से होकर ही गुजरती है.
ओम प्रकाश राजभर के साथ नहीं होने की भरपाई हो पाएगी?
2017 के विधानसभा चुनावों में ओम प्रकाश राजभर बीजेपी के साथ थे. बीजेपी ने उन्हें 8 सीटें दी थीं, जिनमें 4 पर उन्हें जीत मिली थी. इस बार राजभर अबतक बीजेपी का विरोध ही करते नजर आ रहे हैं. पूर्वांचल के बिहार के छोर से शुरू करें तो बलिया, गाजीपुर, जौनपुर, भदोही, देवरिया, गोरखपुर, महाराजगंज समेत करीब 15-20 जिलों में निषाद और राजभर, दोनों वोट अहम हैं. ऐसे में बीजेपी को लग रहा है कि राजभर के साथ नहीं रहने से जो नुकसान होगी उसकी भरपाई निषाद वोटर्स से हो जाएगी.
सारे निषाद वोट संजय निषाद के साथ ही चले जाएंगे, ऐसा दावा करना भी ठीक नहीं. समाजवादी पार्टी के ओबीसी प्रकोष्ठ की कमान राजपाल कश्यप के हाथों में है, जो खुद निषाद जाति समूह से आते हैं. वह पिछले दिनों वादा कर चुके हैं कि एसपी सरकार बनी तो प्रदेश भर में फूलन देवी की प्रतिमा लगेगी. आपको बता दें कि निषाद जाति के पॉलिटिकल आइकन में एक नाम फूलन देवी का भी आता है. यानी एसपी का भी पूरा जोर है कि यह तबका उसका साथ दे.
हालांकि एक बात तो साफ है कि संजय निषाद के बीजेपी के साथ आने से पार्टी को 2022 के चुनावों के लिए एक किक तो मिलती नजर आ रही है. अब जब वोट डालने की बारी आएगी तो गठबंधन कितना कारगर होगा, यह आने वाला वक्त बताएगा.
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