तारीख: 8 सितंबर, जगह: सुल्तानपुर
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औरंगाबाद में 21 साल से शिवसेना सांसद को एआईएमआईएम ने हराया.
AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी
तारीख: 22 सितंबर, जगह: संभल
औरंगाबाद में शिवसेना को हम मुस्लिम मिलकर हरा सकते हैं, तो यहां शिवसेना पार्टी के छोटे भाई बीजेपी को नहीं हरा सकते हैं?
AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी
आपने ऊपर अभी दो बयान पढ़े. ये दोनों बयान सांसद और AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी के हैं. सितंबर के दूसरे हफ्ते से ओवैसी यूपी चुनाव 2022 को लेकर काफी सक्रिय नजर आ रहे हैं और प्रदेश में अलग-अलग जगहों पर लगातार उनका दौरा हो रहा है. इन दौरों की एक खास बात यह है कि ओवैसी अपने भाषणों में बार-बार महाराष्ट्र के औरंगाबाद का जिक्र कर रहे हैं. आइए सबसे पहले यह समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर ओवैसी औरंगाबाद में किस जीत का जिक्र कर रहे हैं और इसके जरिए वह चुनाव के लिए तैयार हो रहे प्रदेश के अपने टारगेटेड वोटर्स को क्या संदेश देना चाह रहे हैं.
2015 से शुरू हुआ औरंगाबाद और ओवैसी का किस्सा
असल में असदुद्दीन ओवैसी महाराष्ट्र के औरंगाबाद में चुनावी जीत का जिक्र कर रहे हैं, जिसकी असल कहानी तो 2015 में शुरू हो गई, लेकिन बड़ा मोड़ आया 2019 में. औरंगाबाद में 2015 में म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव हुए थे. इन चुनावों में AIMIM को 113 में से 26 सीटों पर जीत मिली थी. AIMIM निकाय चुनाव में दूसरी सबसे बड़ी दल के रूप में उभरी. तब कांग्रेस और एनसीपी को क्रमशः 10 और 3 सीटों पर जीत मिली थी. यह एक बड़ी जीत थी और इसका असल इंपैक्ट 2019 के आम चुनावों में देखने को मिला. AIMIM के इम्तियाज जलील सैयद ने इस सीट से 4 बार सांसद रहे शिवसेना के चंद्रकांत खैरे को करीब साढ़े 4 हजार वोटों से हरा दिया.
यूपी चुनावों में औरंगाबाद में मिली 2019 की जीत का जिक्र क्यों कर रहे हैं ओवैसी?
असदुद्दीन ओवैसी ने यूपी में करीब 100 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. ओवैसी अपनी रैलियों में लगातार अखिलेश यादव और बीएसपी की पिछली सरकारों के साथ कांग्रेस को भी निशाने पर ले रहे हैं. ओवैसी अपने भाषणों में लगातार इस बात का दावा कर रहे हैं कि ’11 फीसदी यादव जब अखिलेश को सीएम बना सकते हैं, तो 19 फीसदी मुस्लिम क्यों नहीं.’
एक अनुमान के मुताबिक यूपी की कुल जनसंख्या में 19 फीसदी आबादी मुस्लिमों की है. चुनावों के लिहाज से मुस्लिम वोट बैंक को काफी अहम समझा जाता है. यूपी विधानसभा में करीब 130 से कुछ अधिक ऐसी सीटें हैं, जिनपर मुस्लिम वोटों का स्विंग जीत और हार की तस्वीर बदल सकता है. इनमें ऐसी सीटों की संख्या भी काफी ज्यादा है (अनुमान: करीब 50) जहां कुल वोटर बेस में मुस्लिम वोटर्स का प्रतिशत 30 से अधिक है.
ओवैसी भरोसा दिलाना चाहते हैं कि वह भी जीत सकते हैं
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी की सारी कवायद अपने टारगेटेड वोटर्स के अंदर यह विश्वास पैदा करना है कि वह भी जीत सकते हैं. यही वजह है कि वह अपने भाषणों में औरंगबाद में शिवसेना को हराने या पिछले बिहार विधानसभा चुनावों में सीमांचल की 5 सीटों पर जीत का उदाहरण पेश कर रहे हैं. सामान्य रूप से यह समझा जाता रहा है कि बीजेपी के कैंडिडेट के खिलाफ मजबूत कैंडिडेट देख मुस्लिम वोट पड़ते हैं. ओवैसी खुद को बीजेपी के खिलाफ उसी दावेदार के रूप में पेश करने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
2019 के चुनाव परिणामों और छोटे दलों ने ओवैसी को दिखाई है उम्मीद
यूपी में ओवैसी की हालिया राजनीति के उत्प्रेरक तत्वों के रूप में 2019 के चुनाव परिणाणों और छोटे दलों के एक बार फिर नए पॉलिटिकल फ्रंट के रूप में आने को लिया जा सकता है. पहले बात करते हैं 2019 के आम चुनावों की. सीएसडीएस के पोस्ट पोल सर्वे के मुताबिक एसपी और बीएसपी में महागठबंधन के बावजूद कांग्रेस 14 फीसदी मुस्लिम वोट पाने में सफल रही थी. एसपी-बीएसपी को तब 73 फीसदी वोट और बीजेपी+ को भी 8 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे. ओवैसी की AIMIM खुद को यहीं पर एक विकल्प के रूप में पेश कर रही है, क्योंकि साफ दिखा है कि महागठबंधन के बावजूद मुस्लिम वोटों की एक बड़ी संख्या कांग्रेस के साथ भी गई.
उधर, यूपी में अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसे जाति आधारित छोटे दलों को मिली चुनावी सफलताओं ने भी ओवैसी को एक उम्मीद दिखाई है. पूरे प्रदेश के हिसाब से देखें तो इन दलों के वोट प्रतिशत भले कम नजर आएं लेकिन अपने प्रभुत्व वाले इलाकों में न सिर्फ इन्हें चुनावी सफलता मिली, बल्कि यह सरकार का हिस्सा भी बने. यही वजह है कि ओवैसी ने इस बार छोटे दलों के साथ गठबंधन की योजना बनाई है. खासकर वह पूर्वांचल में ओम प्रकाश राजभर के संपर्क में हैं, जिनका दावा है कि वह और ओवैसी मिलकर पूरे पूर्वांचल की तस्वीर बदल देंगे.
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