मायावती के हाथ में गणेश-त्रिशूल, मंच से जय श्री राम के नारे! क्या कांशीराम वाली BSP बदल गई

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7 सितंबर 2021. लखनऊ स्थित बीएसपी कार्यालय में सजा प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन का मंच. मंच पर हाथ में त्रिशूल लिए हुए मायावती. सामने ब्राह्मणों की भीड़ और इसी बीच मायावती के हाथ में गणेश की मूर्ति भी.

इस नजारे को देखते ही सियासी गलियारों से लेकर सोशल मीडिया तक इस बात पर चर्चा शुरू हो गई कि क्या मायावती के नेतृत्व में अब बीएसपी उस राह से अलग चल रही है, जिसको पार्टी के फाउंडर कांशीराम ने अपनाया था.

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इस तरह के सवाल 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले भी उठे थे, जब बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने मायावती की ही अगुवाई में अपनी ‘सवर्ण विरोधी’ छवि से पूरी तरह बाहर निकलते हुए दलित-ब्राह्मण भाईचारे पर जोर दिया था. मगर अब बीएसपी ब्राह्मणों को लुभाने के साथ-साथ सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पर भी चलती दिख रही है, उसके मंच से जय श्री राम के नारे लग रहे हैं.

14 अप्रैल 1984 को अस्तित्व में आई बीएसपी के बनने की कहानी पर एक नजर दौड़ाते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि क्या वाकई ‘दलित उत्थान’ के नाम पर खड़ी हुई पार्टी ने अपनी राह बदल ली है, अगर हां तो इसके पीछे क्या सियासी मजबूरी है?

चूंकि बीएसपी के बनने की कहानी बहुत हद तक कांशीराम के इर्द-गिर्द ही है, ऐसे में सबसे पहले बात कांशीराम की ही करते हैं.

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कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव में एक निम्न मध्यम वर्गीय सिख परिवार में हुआ था, जिसने दलित समुदाय से धर्मांतरण किया था. कहा जाता है कि सैनिकों के परिवार से एक युवा सिख के तौर पर, वह पंजाब में स्कूल या कॉलेज में अपनी मूल जाति के बारे में काफी हद तक अनजान थे.

मगर कांशीराम जब डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (DRDO) की एक फैक्ट्री में लैब असिस्टेंट की नौकरी कर रहे थे, तब वह महाराष्ट्र की अनुसूचित जातियों जैसे महारों और मातंगों के सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण से हैरान रह गए थे.

अजय बोस ने अपनी किताब ‘बहनजी’ में लिखा है कि DRDO की फैक्ट्री में एक सहयोगी, डीके खापर्डे ने कांशीराम के एक्टिविज्म के सफर में एक प्रभावशाली भूमिका निभाई. महार बौद्ध खापर्डे एक प्रतिबद्ध अंबेडकरवादी थे. उन्होंने पंजाब के युवा लैब असिस्टेंट को अंबेडकर के लेखन से रूबरू कराया. यह कांशीराम के जीवन में एक अहम मोड़ साबित हुआ. इसके बाद एक समय ऐसा आया जब कांशीराम अपनी नौकरी छोड़कर फुल-टाइम एक्टिविस्ट बन गए.

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उन्होंने गांव में अपनी मां को चौबीस पन्नों का एक खत भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा कि वह संन्यास ले रहे हैं और अपने परिवार के साथ सभी संबंधों को तोड़ दिया, कांशीराम ने न केवल अविवाहित रहने की कसम खाई, बल्कि उन्होंने यह भी कहा कि वह शादी, जन्मदिन या अंतिम संस्कार जैसे पारिवारिक कामों के लिए अपने गांव के घर कभी नहीं लौटेंगे. कांशीराम ने अपनी मां को लिखा कि उनका बाकी जीवन दलितों के उत्थान के लिए समर्पित होगा.

साठ के दशक के मध्य में वह एक दलित संगठन, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के सदस्य बन गए, जिसका महाराष्ट्र में मजबूत असर था. मगर बाद में उनका आरपीआई से मोहभंग हो गया. कांशीराम को लगा था कि आरपीआई अंबेडकर के विजन से भटक रही है.

14 अक्टूबर 1971 को, कांशीराम ने अपना पहला संगठन – ‘अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक कर्मचारी कल्याण संघ’ – बनाया. 1973 में, दिल्ली में तीन दिवसीय सम्मेलन आयोजित करके, कांशीराम और उनके सहयोगियों ने इस संघ को एक राष्ट्रीय संघ में बदल दिया. इसका नाम बदलकर अखिल भारतीय पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (BAMCEF) कर दिया गया. BAMCEF को 6 दिसंबर 1978 को, अंबेडकर की पुण्यतिथि पर फिर से लॉन्च किया गया.

BAMCEF का मुख्य मकसद बुद्धिजीवी वर्ग में अपने ‘सामाजिक दायित्व’ को पूरा करने के लिए भावना पैदा करना और ज्योतिराव फुले, भीमराव अंबेडकर और पेरियार रामासामी के विचारों का प्रचार-प्रसार करना था.

सत्तर के दशक के आखिर तक कांशीराम को एहसास हो गया था कि BAMCEF बहुजन समाज के उनके सपने को साकार करने में असमर्थ है. इसके बाद बहुजनों को संगठित करने के लिए कांशीराम ने 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना की.

जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है, डीएस-4 की मुहिम का फोकस शोषण का शिकार दलित वर्ग के ‘उत्थान’ पर था, ऐसे में जाहिर तौर पर यह मुहिम उस ‘अपर कास्ट’ वर्ग के खिलाफ भी थी, जिस पर दलितों के शोषण के आरोप लग रहे थे.

इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ाएं तो इस बात का जिक्र मिलता है कि जमीन पर डीएस-4 के अभियान को तेजी देने में कुछ नारों का खास योगदान रहा, जैसे कि ‘ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4’

मगर उस दौर का विवादित नारा था- ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. इस नारे में निशाने पर ‘अपर कास्ट’ थीं, सीधे तौर पर कहें तो बनिया, ब्राह्मण और ठाकुर. कहा जाता है कि पहले डीएस-4 और फिर बाद में बीएसपी के कार्यकर्ता इस नारे का लंबे वक्त तक इस्तेमाल करते रहे, ये नारा तब सिमट गया, जब बीएसपी भी अपर कास्ट को लुभाने की रेस में उतर गई. हालांकि, बीएसपी अब इस नारे से अपने किसी भी तरह के संबंध को खारिज करती है.

इस नारे के अलावा और भी कई नारे थे, जिनका इस्तेमाल बीएसपी की जड़ें जमने के शुरुआती दौर में होता रहा था- ‘वोट हमारा, राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’. ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’.

कांशीराम ने डीएस-4 के जरिए सोशल एक्टिविज्म की राह पर चलते हुए बीएसपी की स्थापना की थी और कम से कम पार्टी के शुरुआती दौर तक तो उनका फोकस दलितों पर ही रहा था.

राउंड टेबल इंडिया के मुताबिक, साल 1987 में इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के एक इंटरव्यू में कांशीराम ने कहा था, ”अपर कास्ट के लोग कहते हैं कि आप हमें क्यों शामिल नहीं करते. मैं कहता हूं कि आप लोग सभी पार्टियों की अगुवाई कर रहे हो. अगर आप हमारी पार्टी में शामिल होते हो, तो आप यहां भी बदलाव को बाधित करोगे. अपर कास्ट के लोग पार्टी में शामिल हो सकते हैं, लेकिन वे इसके नेता नहीं हो सकते. नेतृत्व पिछड़े समुदायों के हाथ में ही रहेगा. मेरा डर यही है कि ये अपर कास्ट के लोग अगर हमारी पार्टी में आएंगे तो बदलाव की प्रकिया बाधित होगी. जब यह डर चला जाएगा, तो वे हमारी पार्टी में शामिल हो सकते हैं.”

ये तो हुई कांशीराम की बात, अब बात उन मायावती की करते हैं, जो डीएस-4 बनने से पहले ही कांशीराम की मुहिम से जुड़ चुकी थीं. कांशीराम की बेहद खास रहीं मायावती का सियासी कद सही मायने में तब बढ़ा था, जब 1993 में समाजवादी पार्टी (एसपी) और बीएसपी ने गठबंधन के तहत यूपी विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल कर सरकार बनाई. इस सरकार में एसपी नेता मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन मायावती का जिस तरह से सरकार में दखल था, उसके आधार पर उन्हें ‘सुपर चीफ मिनिस्टर’ तक कहा जाने लगा. इस सरकार के दौरान मायावती ने दलितों के हित में आवाज भी उठाई.

1995 में बीएसपी और एसपी का गठजोड़ टूटने के बाद जब मुलायम सिंह की अगुवाई वाली सरकार गिरी तो मायावती भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का बाहरी समर्थन हासिल कर उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं.

फिर जब 1996 के विधानसभा चुनाव हुए तो कोई पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, ऐसे में कुछ वक्त तक राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा. अप्रैल 1997 में, 174 विधायकों वाली बीजेपी का 67 सीट जीतने वाली बीएसपी के साथ एक समझौता हुआ. इस समझौते के तहत 6-6 महीने के अंतराल पर दोनों पार्टियों से एक-एक मुख्यमंत्री बनाने पर सहमति बनी. इसके तहत मायावती पहले 6 महीने मुख्यमंत्री रहीं. मगर सियासी उठापटक के बीच बीएसपी का बीजेपी से समझौता टूट गया.

इसके बाद जब 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद भी जब कोई पार्टी अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, तो मार्च से लेकर मई 2002 तक राष्ट्रपति शासन रहने के बाद बीजेपी ने बीएसपी को समर्थन दिया और मायावती तीसरी बार राज्य की मुख्यमंत्री बनीं. मगर इस सरकार के सामने लगातार चुनौतियां आती रहीं, ऐसे में मायावती ने अगस्त 2003 में इस्तीफा दे दिया.

ऐसे में 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले शायद मायावती को यह बात समझ में आ गई कि दलित केंद्रित राजनीति से उन्हें गठबंधन केंद्रित सियासत पर ही निर्भर रहना पड़ेगा. इस बीच पार्टी ने उस चुनाव में अपनी ‘सवर्ण विरोधी’ छवि से पूरी तरह बाहर निकलने की ठानी.

बीएसपी ने ब्राह्मण-दलित गठजोड़ पर जोर देते हुए सोशल इंजीनियरिंग का एक नया फॉर्मूला अपनाया. इस चुनाव में पार्टी ने 86 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 40 से ज्यादा की जीत हुई. कुल मिलाकर बीएसपी के खाते में 403 सदस्यीय विधानसभा की 206 सीटें आईं.

मगर साल 2012 में यूपी की सत्ता से बाहर होने के बाद बीएसपी अब तक वापसी नहीं कर पाई है. इस बीच 2019 के लोकसभा चुनाव में वो एसपी के साथ गठबंधन करके भी देख चुकी है. मगर 2007 के बाद बीएसपी की कोई भी सियासी चाल उसके लिए कारगर नहीं रही. शायद इसलिए पार्टी अब फिर से 2007 के फॉर्मूले पर ही जोर दे रही है.

क्या फिर से बीएसपी के काम आएगा 2007 का फॉर्मूला?

ब्राह्मणों को प्रमुखता देने के बावजूद बीएसपी ने 2007 में इस तरह का सॉफ्ट हिंदुत्व नहीं अपनाया था, जैसा वो अभी अपनाती दिख रही है. इसी का नतीजा था कि उसके जीतने वाले उम्मीदवारों में 29 मुस्लिम भी थे. अब बीएसपी के सॉफ्ट हिदुत्व वाले अप्रोच से उसके मुस्लिम वोटरों के छिटकने की भी आशंका बनी हुई है.

दूसरी बात यह भी है कि हिंदुत्व के मुद्दे पर अब उत्तर प्रदेश की राजनीति में बीजेपी की छवि और जमीनी स्तर तक उसकी सक्रियता ऐसी है कि इस मामले में किसी भी पार्टी के लिए उसका मुकाबला करना आसान नहीं होगा.

पिछले कुछ वक्त से बीजेपी लगातार अपनी प्रतिद्वंदी पार्टियों के जाति आधारित मूल हिंदू वोट बैंक को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाकर उसमें सेंध लगाने की कोशिश में दिखी है. 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इसका फायदा भी मिला था.

द हिंदू-सीएसडीएस-लोकनीति पोस्ट-पोल सर्वे के मुताबिक, 2019 में बीएसपी अपने मूल जाटव वोट (उनमें से तीन-चौथाई से ज्यादा ने महागठबंधन को वोट दिया) पर पकड़ बनाए रखने में सक्षम थी, लेकिन गठबंधन के लिए गैर-जाटव दलितों के समर्थन को सुनिश्चित करने में नाकाम रही, क्योंकि उनमें से लगभग आधों (48 फीसदी) ने, 2017 की तरह, बीजेपी उम्मीदवारों को वोट दिया.

ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि बीएसपी की नई रणनीति यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में उसके कितने काम आती है.

जब रात में दरवाजे पर हुई दस्तक और बदल गई ‘किस्मत’, किस्सा मायावती का

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