बनारस में 26 दिंसबर की सुबह बहुत ज्यादा ठंड नहीं थी और लोग हमेशा की तरह अपने रोजमर्रा के कामों में लगे हुए थे. शहर की तंग सड़कों पर तेज हॉर्न बजा कर भागते हुए लोगों को देख कर ऐसा लग रहा था, जैसे- किसी ने रेस की सीटी बजाई है और ना चाहते हुए भी उन्हें इस रेस में हिस्सा लेना पड़ा है. बनारस में लगने वाले ट्रैफिक जाम का रंग भी एकदम निराला है, क्योंकि कभी-कभी इस जाम में लोगों के साथ भगवान भोले नाथ की सवारी भी साथ चलते दिख जाती है. दौड़ती गाड़ियां, भागते लोग और तेज हॉर्न के शोरगुल से दूर आज के दिन कुछ लोग एक मकबरे को साफ करते हुए दिख जाते है. जहां एक बूढ़ा आदमी गुलाब के फूलों को कब्र पर जल्द से जल्द बिखेरने की कोशिश कर रहा है. जैसे कब्र को इन फूलों की महक का इंतजार ना जाने कब से हो.
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पास जाने पर मकबरे पर एक पत्थर दिखता है, जिसमें अरबी में कुछ लिखा हुआ है. पत्थर पर लिखी लाइन का मतलब पूछने पर उस बूढ़े शख्स ने बताया कि- “कितने आराम से है कब्र में सोने वाले, कभी दुनिया में था फिरदौस में अब है मस्कान, कब्र किस अहले वफा की अल्लाह-अल्लाह सबको गम जिसका है, वह दोस्त हो या दुश्मन.”
ये कब्र किसकी है…सवाल पूछने पर उस बूढ़े व्यक्ति ने मुझे गौर से देखा और हाथों से इशारा एक और पत्थर के तरफ किया, जिसपर लिखा था… उमराव बेगम ‘लखनवी’. वाराणसी के फातमान कब्रिस्तान में एक तरफ शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्ला खां की कब्र है तो दूसरी तरफ अवध की शान कहे जाने वाली उमराव जान की. उमराव जान ने अपनी जिंदगी के आखिरी पल बनारास के दालमंडी में गुजारी. उमराव जान को जानने से पहले उस शख्स को जनना जरूरी है, जिसने उनकी कहानी दुनिया के सामने लाया…उनका नाम है मिर्जा हादी रुसवा.
मिर्जा हादी रुसवा का जन्म 1857 के गदर के समय हुआ था और उनकी जिंदगी भी किसी गदर से कम ना थी. ये उर्दु, अरबी, फारसी, लैटिन, इंग्लिश समेत ये सात भाषाओं के महारथी थे. मिर्जा साहब लखनऊ के क्रिश्चयन कॉलेज के प्रोफेसर भी रहे लेकिन साहित्य के नहीं बल्कि साइंस, मैथमैटिक्स और फिलॉसफी के. मिर्जा साहब लखनऊ के कोठे में अक्सर जाया करते थे और यही आदत उनसे एक ऐसा काम करा गया जिससे वह अमर हो गए. 1905 में उन्होंने उर्दु में एक किताब लिखी जिसका नाम था – उमराव जान अदा.
उमराव जान अदा, कहानी है एक लड़की की जिसका नाम आमरीन था. ये कहानी शुरु होती है फैजाबाद से जहां दिलावर खां नाम का एक आदमी आपसी रंजिश की वजह से आमरीन को अगवा करता है और लखनऊ के चौक में 125 रुपए में बेच देता है. सन 1775 में आसफ़ुद्दौला ने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ को बनाया. दिल्ली में उस दौरान मुगल सलतन का पतन हो रहा था और वहां से कई कलाकार अवध में पनाह ले रहा थे. एक पुरानी कहावत भी है कि दिल्ली बरबाद हुआ तो लखनऊ आबाद.
लखनऊ में दो जगहें थी जहां तवायफों ने अपना डेरा जमाया केसर बाग और चौक. चौक वही जगह है जहां आमरीन यानी उमराव जान बेची गई. इस किताब में उमराव जान खुद कहती है कि उस वक्त लखनऊ के कोठों में अलग-अलग जगहों से लड़कियां बिकने आती थी. अब ये सवाल उठता है कि इन कोठों में आखिर ये तवायफें थी कौन. इसका जवाब इस किताब में ये मिलता है कि ये महिलाएं उस समय लखनऊ में एक कलाकार के तौर पर देखी जाती थी, जो लखनऊ के अमीर और कुलीन वर्ग के सामने अपनी कला पेश करती थी. खास बात ये थी कि ये महिलाएं आर्थिक रूप से आजाद थी और समाज में भी उन्हें अच्छी खासी इज्जत हासिल थी. बड़े-बड़े रईसजादें उस समय इन महिलाओं के पास तमीज सीखने, समाज में उठने बैठने का तरीका सीखने, गजल और संगीत सीखने भी आया करते थें.
बड़े-बड़े घरों में इन महिलाओं के बगैर कोई भी कार्यक्रम अधूरा माना जाता था, जैसे- बच्चा पैदा होने पर, शादी या कोई बड़ा धार्मिक उत्सव. इस उपन्यास में भी एक जगह बताया गया है कि उमराव जान बड़े इमामबाड़े के मुहर्रम में शोज पढ़ती हैं. और सबसे खास बात की ये महिलाएं उस समय लखनऊ की सबसे बड़ी टैक्स पेयर में भी शामिल थी. इस किताब को पढ़ कर आपको मालूम चलेगा कि इन महिलाओं को एक कलाकार के तौर पर लखनऊ में एक ऊंचा ओहदा हालिस था और उसके पीछे कि वजह थी इनकी शानदार तालिम. इस किताब में इस तालिम के बारे में काफी अच्छे से बताया गया है…हालांकि उमराव पर बनी फिल्मों से ये सब कुछ गायब है.
आमरीन की जिंदगी में ऐसे ही कई मोड़ आते हैं, जो उसे कभी खुशी तो कभी गमों के सागर में धकेल देते हैं. इस उपन्यास में उमराव के संघर्ष की कहानी का भी बहुत बड़ा हिस्सा है. जब उमराव लखनऊ छोड़कर कानपुर पहुंचती है, जहां वह बिल्कुल अकेली है. उमराव वहां शून्य से शुरू करके अपने कला के माध्यम से उस शहर में अपना नाम कमाती है. हांलाकि उमराव जान की फिल्मों के उनकी संघर्ष की कहानी को पूरी तरह से गायब कर दिया गया है.
उमराव उम्र की ढ़लती रौ में वह काशी आ गयीं. यही दालमंडी के पास पत्थर गली में मकान लेकर रहने लगीं. अपने उम्र के बचे दिन उमराव ने यहीं काटे. जानकार बताते हैं कि उमराव जान वाराणसी में न तो महफिलें सजातीं और न ही मुजरा करतीं. उमराव जान के मकबरे की देखभाल करने वाले शकील अहमद जादूगर के अनुसार एक परिचित के मशवरे से उन्होंने लगभग वर्ष 1928 में बनारस का रुख किया. चौक क्षेत्र के गोविंदपुरा मोहल्ले में उन्हें पनाह मिली. यहीं पर गुमनाम जिंदगी गुजारते हुए 26 दिसंबर 1937 को उन्होंने अंतिम सांस ली.
उमराव जान के उस स्याह पहलू पर किसी की नजर नहीं पड़ी जो उनके गुमनामी के आखिरी दिनों में उनके साथ गुजरी और आज भी वाराणसी में उनकी मौजूदगी का एहसास दिलाती है. अमरीन से उमराव बनीं फैजाबाद की उस मासूम लड़की की बेबसी का तमाशा तो सेल्युलाइड के परदे पर तो सबने देखा मगर ढ़लती उम्र के बाद की कहानी शायद ही किसी को पता हो!
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