6 दिसंबर 1992: जब ‘अयोध्या’ से बदल गई पूरे देश की राजनीति, जानें इस दिन की पूरी कहानी

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Ayodhya News: 6 दिसंबर 1992, आजाद भारत के इतिहास में यह तारीख काफी संवेदनशील है. इस तारीख का असर इस बात से समझा जा सकता है कि आज भी उत्तर प्रदेश में इस दिन संवेदनशीलता चरम पर होती है. असल में 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में उग्र कारसेवकों की एक भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था. उस समय यूपी में बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. आइए आज हम आपको अयोध्या विवाद का पूरा किस्सा और इसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि को विस्तार से बताते हैं.

सबसे पहले अयोध्या विवाद की राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझिए

आजाद भारत के धार्मिक और राजनीतिक मसले इस कदर एक-दूसरे से जुड़े हैं कि कई बार इन्हें अलग से देख पाना संभव नहीं. अयोध्या का मामला भी कुछ ऐसा ही है. यही वजह है कि अयोध्या विवाद को समझने से पहले हमें इसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि को समझना होगा. इसे समझने के लिए आपको हिंदुस्तान के 80 की दशक वाली राजनीति की ओर चलना होगा. यह वह दौर था, जब देश में कांग्रेस विरोध की राजनीति विपक्षी एकजुटता की अहम कड़ी थी.

तब कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिए बीजेपी ने जब वीपी सिंह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय मोर्चा सरकार को बाहर से समर्थन दिया. हालांकि यह गठजोड़ तब बीजेपी के लिए असमंजस की स्थिति वाला बन गया जब वीपी सरकार की तरफ से मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किए जाने का फैसला हुआ.

कुछ नेताओं की राय में यह हिंदू समाज को विभाजित करने का एक षड्यंत्र था. दूसरे कई नेताओं की राय थी कि पिछड़े वर्गों के लिए सकारात्मक कदमों की शुरुआत उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए एक जरूरी कदम थी.

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ऐसे में बीजेपी और आरएसएस की शाखाओं में इस पर बहसें हुईं कि मंडल आयोग की रिपोर्ट का समर्थन किया जाए या नहीं. मगर इस मुद्दे पर एक खास रुख अपनाने की बजाए बीजेपी ने राजनीतिक बहस को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश की. पार्टी ने धर्म का मुद्दा चुना और अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए अभियान शुरू करने का फैसला किया.

जब बीजेपी ने छेड़ा राम मंदिर निर्माण का अभियान

इसी के तहत गुजरात के प्राचीन शहर सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक एक रथयात्रा निकालने का ऐलान किया गया. इस अभियान का नेतृत्व बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे. 25 सितंबर, 1990 से शुरू होकर पांच हफ्ते बाद आडवाणी की रथयात्रा की योजना अयोध्या पहुंचने की थी. इसी क्रम में उनका रथ आठ राज्यों से होकर करीब 6000 मील की दूरी तय करता. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) से जुड़े लोग शहर-दर-शहर इसके स्वागत में जुट रहे थे.

आडवाणी की यह रथयात्रा वीपी सिंह सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित हुई क्योंकि इस अभियान ने धार्मिक भावनाओं को उकसाने का खतरा पेश कर दिया, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. मगर सियासी समीकरणों को देखते हुए इसे रोकना भी सरकार के लिए आसान नहीं था.

आखिरकार, रथयात्रा दिल्ली पहुंच गई, जहां आडवाणी कई दिन तक रुके रहे और सरकार को उन्हें गिरफ्तार करने की चुनौती देते रहे, लेकिन सरकार ने उस चुनौती को नजरअंदाज करना उचित समझा और यात्रा फिर शुरू हो गई. हालांकि अपने अंतिम मुकाम पर पहुंचने से एक हफ्ते पहले जब रथयात्रा बिहार से गुजर रही थी तो वहां इसे रोक दिया गया. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर आडवाणी को एहतियातन हिरासत में भी ले लिया गया.

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जब आडवाणी बिहार सरकार की एक अतिथिशाला में बंद थे, तब हजारों की संख्या में कारसेवक पूरे देशभर से अयोध्या की तरफ कूच कर रहे थे. इसी बीच, अपने बिहारी समकक्ष की तरह ही बीजेपी के कट्टर विरोधी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने इस सिलसिले में राज्य के बाहर से आने वाले लोगों की गिरफ्तारी का आदेश दे दिया.

रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ के मुताबिक, करीब 150000 कारसेवकों को हिरासत में ले लिया गया लेकिन उससे आधे के करीब अयोध्या पहुंचने में कामयाब हो गए. अयोध्या में सुरक्षाबलों के बीस हजार जवान पहले से ही तैनात थे, जिनमें कुछ नियमित पुलिस के जवान थे जबकि दूसरे बीएसएफ जैसे अर्ध-सैनिक बलों से थे. बाद में हालात इतने बिगड़े कि सुरक्षाबलों और कारसेवकों में हिंसक भिड़ंत भी हो गई. सुरक्षाबलों और कारसेवकों के बीच पूरे तीन दिनों तक लड़ाई चलती रही.

अयोध्या विवाद का बीजेपी को हुआ सियासी फायदा

अयोध्या को लेकर बीजेपी की आक्रामक राजनीति का फायदा भी पार्टी को मिला. साल 1991 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 120 सीटों पर जीत हासिल हुई, जो कि उसकी पिछली संख्या से 35 ज्यादा थी. पार्टी ने इसी साल उत्तर प्रदेश की 425 सदस्यीय विधानसभा की 221 सीटों पर जीत हासिल की. इसके बाद कल्याण सिंह यूपी में बीजेपी के पहले मुख्यमंत्री बने.

6 दिसंबर 1992 को वीएचपी ने ‘शुभ दिन’ के रूप में चुना

इस बीच राम मंदिर को लेकर आंदोलन जारी रहा. विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने घोषणा की कि 6 दिसंबर 1992 को उस ‘शुभ’ दिन के रूप में चुना गया है, जब राम मंदिर का निर्माण-कार्य शुरू किया जाएगा. नवंबर के मध्य से पूरे देशभर से कारसेवकों का जमावड़ा अयोध्या की तरफ जाने लगा. वे इस बात से उत्साहित थे कि अब राज्य सरकार बीजेपी के हाथ में है.

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ऐसे में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को नई दिल्ली तलब किया गया. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखा है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उनसे आग्रह किया कि इस मामले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा हल हो जाने दें. मगर कल्याण सिंह ने प्रधानमंत्री से कहा कि ‘अयोध्या विवाद का एक ही सर्वमान्य हल है और वो हल ये है कि विवादित ढांचे की जमीन हिंदुओं को सौंप दी जाए.’ हालांकि, कल्याण सिंह ने 28 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद की सुरक्षा करने के लिए हलफनामा दायर किया था.

एक लाख से ज्यादा कारसेवक, पास में ‘त्रिशूल, तीर और धनुष’

कल्याण सिंह ने बतौर सीएम अपने प्रशासन को निर्देश दिया था कि राज्य से और राज्य के बाहर से आने वाले कारसेवकों के खाने और ठहरने की व्यवस्था की जाए. एक लाख से भी ज्यादा कारसेवक अयोध्या में दाखिल हो चुके थे. उनके पास ‘त्रिशूल, तीर और धनुष थे.’ 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों की उग्र भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया. इसके बाद न सिर्फ कल्याण सिंह की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार चली गई, बल्कि कल्याण को एक दिन दिल्ली की तिहाड़ जेल में भी बिताना पड़ा.

मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने इंडिया टुडे को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था कि वो बाबरी मस्जिद गिरा देने के बजाय शिफ्ट करना चाहते थे.

8 दिसंबर, 1992 को कल्याण सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “जिस मकसद से वह मुख्यमंत्री बने थे वह पूरा हुआ.” उन्होंने कहा था कि वह ऐसी एक नहीं, बल्कि कई सरकार को ठोकर मारने के लिए तैयार हैं. इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कल्याण सिंह ने कहा था, “उन्हें इस विवादित ढांचे के गिरने का कोई पछतावा नहीं है.” उन्होंने ये भी कहा था, “मैं ही हूं, जिसने पार्टी के इस बड़े उद्देश्य को पूरा किया है.”

यूपी तक के लिए अक्षय प्रताप सिंह की रिपोर्ट

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