समाजवादी पार्टी का 30वां स्थापना दिवस: क्या मुलायम के ‘करिश्मे’ को आगे बढ़ा पाएंगे अखिलेश?

अमीश कुमार राय

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4 अक्टूबर 1992. वह दिन जब मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) ने यूपी में समाजवादी पार्टी की स्थापना की. यह वो दिन था जहां के बाद से देश के सबसे ताकतवर सियासी सूबे की राजनीतिक तस्वीर करीब डेढ़ दशकों तक ‘धरती पुत्र’ यानी मुलायम सिंह यादव के इर्द-गिर्द चलने वाले थी. वह मुलायम, जिन्होंने समाजवादी राजनीति से यूपी में कांग्रेस के सिंगल पार्टी डोमिनेंस न सिर्फ खत्म किया बल्कि 1990 के दशक में उफान पर रही कमंडल की राजनीति को मंडल से हराया और प्रदेश व देश की सियासत में कई अभिनव प्रयोग किए.

आज जब समाजवादी पार्टी का 30वां स्थापना दिवस है, तब पार्टी के संस्थापक और नेताजी के नाम से मशहूर मुलायम मेदांता में भर्ती हैं. अभी भी उनकी हालत क्रिटिकल लेकिन स्टेबल बताई जा रही है. अखिलेश, शिवपाल समेत पूरा यादव परिवार मेदांता में जमा है और मुलायम के ठीक होने की दुआ कर रही है. स्थापना दिवस समारोह मनाने के बजाय कार्यकर्ता हवन-पूजन कर मुलायम के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं. सबको उम्मीद है कि सियासत के पहलवान मुलायम बीमारी को भी पटखनी देकर वापसी जरूर करेंगे.

इधर मुलायम की शुरू की गई समाजवादी पार्टी को यूपी में लगातार बीजेपी से हार का सामना करना पड़ा है. जिस पार्टी को मुलायम ने अपने खून-पसीने से सींच कर खड़ा किया, उसमें उन्हीं की आंखों के सामने फूट भी पड़ी. मुलायम की लाख कोशिशों के बावजूद अखिलेश अपने चाचा शिवपाल को साथ नहीं रख पाए हैं. 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले एक बारगी लगा कि शिवपाल फिर से अखलेश के साथ आ गए, लेकिन चुनावी शिकस्त के ठीक बाद दोनों के संबंधों में फिर दरार देखी गई.

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Mulayam Singh Yadav News:अखिलेश के नेतृत्व में सपा लगातार यूपी की सियासत में वापसी को लेकर संघर्ष कर रही है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि मुलायम ने जिस तरह यूपी में कांग्रेस के वर्चस्व को धता बताते हुए समाजवादी राजनीति को मजबूत किया, क्या अखिलेश भी वैसा करिश्मा दिखाने में कामयाब होंगे? पिछले दिनों सपा के राष्ट्रीय अधिवेशन में अखिलेश लगातार तीसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए.

2024 का लोकसभा चुनाव अब अखिलेश यादव के लिए लिटमस टेस्ट है. देखना रोचक होगा कि क्या अखिलेश ठीक वैसे ही सियासी प्रयोग कर पाते हैं और पार्टी को जीत दिला पाते हैं, जैसा एक जमाने में कभी मुलायम किया करते थे.

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आइए समाजवादी पार्टी की अबतक की यात्रा पर एक नजर डालते हैं…

समाजवादी पार्टी (Samjwadi Party History) की स्थापना 4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह यादव ने की थी. हालांकि इसके पीछे एक लंबी कहानी मुलायम सिंह यादव के सियासी संघर्षों की है. मुलायम सिंह यादव अपनी किशोरावस्था से ही राम मनोहर लोहिया के समाजवादी आंदोलन से काफी प्रभावित हुए थे.

उस दौरान यूपी समेत पूरे देश में कांग्रेस का एकछत्र राज था. तब लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी कांग्रेस विरोध और समाजवाद की राजनीति करती थी. मुलायम सिंह के गुरु नत्थू सिंह ने 1967 में जसवंतनगर सीट से मुलायम को लड़ाने का प्रस्ताव दिया. तब मुलायम की उम्र सिर्फ 28 साल थी, लेकिन उनके तेवरों की कहानी सुना नत्थू सिंह ने लोहिया को जैसे-तैसे मना लिया. मुलायम भी इस परीक्षा में खरे उतरे और महज 28 साल की उम्र में राज्य के सबसे कम उम्र के विधायक बने.

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तुरंत मिली हार, लेकिन टिके रहे मुलायम

हालांकि 12 नवंबर 1967 को लोहिया के निधन के बाद यूपी में समाजवादी मुहिम को एक झटका लगा. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी कमजोर पड़ने लगी. 1969 के विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव को हार का भी सामना करना पड़ा. बाद में मुलायम यूपी में मजबूत हो रही चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल में शामिल हो गए. आगे चलकर उनका राजनीतिक सफर उन्हें जनता दल में ले गया. 1989 आते-आते मुलायम सिंह यादव का सियासी कद इतना बड़ा हो गया कि यूपी में जब जनता दल की सरकार आई तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. इस सरकार को बीजेपी ने बाहर से समर्थन दिया था, जिसने कुछ ही वक्त में अपना समर्थन वापस भी ले लिया.

सियासी उठापटक के बीच, 1990 में केंद्र में वीपी सिंह की अगुवाई वाली जनता दल की सरकार गिर गई. प्रधानमंत्री के तौर पर वीपी सिंह के इस्तीफे के बाद, केंद्र में कांग्रेस की मदद से उन चंद्रशेखर की अगुवाई वाली सरकार बनी, जो जनता दल से अलग हो गए. वहीं यूपी में, कांग्रेस ने चंद्रशेखर के गुट में शामिल मुलायम की अगुवाई वाली सरकार को बाहरी समर्थन से समर्थन दिया. हालांकि, 1991 में कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद ये दोनों सरकारें गिर गईं.

बाबरी गिराई गई और यूपी की सियासत बदल गई

यह वह दौर था जब यूपी में बीजेपी ने राम मंदिर के लिए आंदोलन तेज कर दिया था. इस बीच 1992 में मुलायम ने सपा की स्थापना कर दी. 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद यूपी और देश की सियासत हमेशा के लिए बदल गई. इसके अगले साल यानी 1993 में यूपी विधानसभा चुनाव हुए तो एसपी ने बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ रणनीतिक साझेदारी कर ली. इसे कमंडल के सामने मंडल के प्रयोग का नाम दिया गया. एसपी ने 256 सीटों पर चुनाव लड़ा और 109 सीटें जीतीं. वहीं 164 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली बीएसपी के खाते में 67 सीटें आईं. चुनाव के नतीजों के बाद इस गठबंधन की सरकार बनी और मुलायम एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने. हालांकि, 1995 में बीएसपी इस गठबंधन से बाहर हो गई और यह सरकार गिर गई.

साल 2003 में एक बार फिर यूपी में एसपी (SP) की सरकार बनी. मुलायम सिंह यादव तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. इस सरकार पर कानून व्यवस्था को लेकर काफी सवाल उठे. 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित-ब्राह्मण समीकरण से बीएसपी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ और एसपी फिर से सत्ता से बाहर हो गई.

फिर बारी आई अखिलेश की

साल 2009 में अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. अखिलेश ने तत्कालीन मायावती सरकार के खिलाफ जंग तेज कर दी. उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने की दिशा में भी काम किया. 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश ने पार्टी में नई जान फूंकने के लिए कई साइकिल यात्राएं कीं और ‘क्रांति रथ’ से भी एक बड़ी यात्रा शुरू की. अखिलेश की कोशिशें रंग लेकर आईं और समाजवादी पार्टी ने 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में 224 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर बहुमत हासिल किया. इस तरह अखिलेश यादव 38 साल की उम्र में प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.

2014 के बाद से अखिलेश को अच्छे दिनों का इंतजार

अखिलेश यादव को यूपी में मिली सफलता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी रह पाई. केंद्र की राजनीति में नरेंद्र मोदी की एंट्री ने यूपी की सियासत को भी बदल कर रख दिया. 2014 के लोकसभा चुनाव में एसपी के खाते में यूपी की 80 सीटों में से महज 5 सीट ही आईं. इसके बाद पार्टी को दूसरा बड़ा झटका तब लगा, जब 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन में उतरी समाजवादी पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में एसपी 311 विधानसभा सीटों पर लड़ी थी, जिनमें से उसे महज 47 पर ही जीत हासिल हुई.

2019 में अखिलेश भी चले मुलायम की राह पर नहीं मिली सफलता

अखिलेश ने 2019 के लोकसभा चुनाव में इन झटकों से उबरने के लिए एक बड़ा कदम उठाया. बीजेपी के विजय रथ को रोकने के लिए उसने 1995 से अपनी कड़ी प्रतिद्वंदी रही बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ गठबंधन किया. मगर एसपी की यह रणनीति भी काम नहीं आई और इस चुनाव में भी उसके खाते में 5 सीटें ही आईं.

2022 में भी अखिलेश के सारे प्रयास हुए फेल

2022 के विधानसभा चुनावों में भी सपा को सफलता नहीं मिली. अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल और ओम प्रकाश राजभर की SBSP जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन कर बीजेपी को चुनौती देने की कोशिश की. इसके बावजूद बीजेपी को 273 सीटों पर जीत मिली और सपा गठबंधन के खाते में महज 125 सीटें आईं.

अब अखिलेश यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती यूपी में अपनी सियासी जमीन वापस पाने की ही है. अखिलेश को उम्मीद है कि वह ऐसा करने में कामयाब होंगे और अपने पिता मुलायम की तरह ही अंततः विजेता बनकर निकलेंगे. हालांकि इस उम्मीद की असल परीक्षा 2024 में होनी है.

कैसे हुआ था समाजवादी पार्टी का जन्म, क्यों उसके लिए UP का 2022 चुनाव है ‘अग्निपरीक्षा’

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