15 मार्च 2012. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी (एसपी) के समर्थकों, कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच एक अलग तरह के जश्न का माहौल था. यह वो दिन था, जब एसपी को गांवों की चौपालों के साथ-साथ शहरों के ड्रॉइंग रूम तक पहुंचाने वाले अखिलेश यादव 38 साल की उम्र में प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने.
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आज वही अखिलेश उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी खोई हुई जमीन को वापस पाने की कोशिशों में जुटे दिख रहे हैं. वह सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय हैं और अलग-अलग मुद्दों को लेकर सत्तारूढ़ बीजेपी पर जमकर निशाना साध रहे हैं. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में अखिलेश की इस सक्रियता का क्या असर पड़ सकता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें अखिलेश के अब तक के राजनीतिक सफर पर एक नजर दौड़ानी होगी, जो कई उतार-चढ़ाव भरे रास्तों से होकर गुजरा है.
समाजवादी पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के सैफई में 1 जुलाई 1973 को मुलायम सिंह यादव और मालती देवी के घर अखिलेश का जन्म हुआ था.
संजय लाठर ने अपनी किताब ‘समाजवाद का सारथी’ में लिखा है कि अखिलेश के जन्म के बाद मुलायम के एक मित्र दर्शन सिंह ने कहा था कि मुलायम के घर टीपू सुल्तान पैदा हुआ है. ऐसे में इतिहास-भूगोल से अपरिचित घर की महिलाओं ने जब दर्शन सिंह से पूछा कि यह टीपू क्या नाम रख दिया तो उन्होंने बताया कि टीपू सुल्तान एक महान योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों से लोहा लिया था. यह सुनकर घर की महिलाएं खुश हो गईं और अखिलेश का घर का नाम टीपू पड़ गया.
अखिलेश ने अपनी शुरुआती पढ़ाई इटावा में की और फिर उनका दाखिला राजस्थान के धौलपुर मिलिट्री स्कूल में कराया गया.
यह संयोग ही था कि अखिलेश का घर का नाम जिन टीपू सुल्तान के नाम पर पड़ा, वह उन्हीं के शहर मैसूर में ग्रेजुएशन के लिए पहुंच गए. अखिलेश ने इस शहर में 4 साल बिताकर मैसूर यूनिवर्सिटी से सिविल एनवायरमेंट इंजीनियरिंग में स्नातक डिग्री हासिल की थी. इसके बाद वह पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए ऑस्ट्रेलिया भी गए थे.
लोकसभा की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, अखिलेश ने खुद को एग्रीकल्चरिस्ट इंजीनियर, पॉलिटिकल और सोशल वर्कर बताया है. बात उनकी रुचियों की करें तो इनमें पढ़ना, म्यूजिक सुनना, फिल्म देखना, फुटबॉल खेलना और देखना शामिल है. इसके अलावा क्रिकेट में भी उनकी रुचि है.
अखिलेश की टेढ़ी नाक का राज भी फुटबॉल के प्रति उनकी रुचि से जुड़ा है. कॉलेज के दिनों में फुटबॉल खेलते वक्त उनकी नाक में चोट लग गई थी. जब अखिलेश को डॉक्टर के पास ले जाया गया तो पता चला कि उनकी नाक की हड्डी टूट गई है. उस वक्त चोट में तो टांके लगा दिए गए, लेकिन डॉक्टर ने सर्जरी नहीं की और ऐसे में अखिलेश की नाक टेढ़ी ही रह गई.
24 नवंबर 1999 को अखिलेश की जिंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ था, जब उन्होंने अपनी दोस्त डिंपल के साथ शादी की.
बात अखिलेश के बच्चों की करें तो उनके तीन बच्चे (अदिति, अर्जुन और टीना) हैं.
कैसे हुई राजनीति में एंट्री?
दिसंबर 1999 का वक्त था. अखिलेश अपनी पत्नी डिंपल के साथ नवविवाहित जोड़ों की पसंदीदा जगहों में से एक देहरादून में थे. अचानक अखिलेश को एक फोन आया, यह फोन उनके पिता मुलायम का था. मुलायम ने अखिलेश से कहा, ”घर लौट आओ. तुम्हें कन्नौज से लोकसभा का उपचुनाव लड़ना है.” पिता के आदेश का पालन करते हुए अखिलेश देहरादून से सैफई के लिए रवाना हो गए.
उस वक्त कन्नौज की सीट की कहानी यह थी कि 1999 के लोकसभा चुनाव में मुलायम ने इस सीट के साथ-साथ संभल से भी चुनाव लड़ा था. चुनाव के दौरान उन्होंने कहा था कि जिस सीट से उनको कम वोट मिलेंगे, वह उसे छोड़ देंगे. ऐसे में जब संभल के मुकाबले कन्नौज में उनकी जीत का अंतर कम रहा तो उन्होंने इस सीट को छोड़ने का फैसला किया. हालांकि, उनके इस फैसले के बाद सीट के कई दावेदार सामने आने लगे और पार्टी में भीतरघात की आशंकाएं पैदा होने लगीं. ऐसे में काफी मंथन के बाद अखिलेश को इस सीट से समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बनाया गया. अखिलेश ने साल 2000 में इस उपचुनाव को जीतकर अपने चुनावी राजनीतिक करियर की शुरुआत की. इसके बाद साल 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में भी अखिलेश इसी सीट से जीते.
पार्टी में कैसे बढ़ा अखिलेश का कद?
साल 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में हार के बाद समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेता अमर सिंह के दिल्ली स्थित लोदी रोड आवास पर एक डिनर के दौरान मिले थे. इन नेताओं में मुलायम सिंह यादव और रामगोपाल यादव शामिल थे. डिनर के वक्त जया प्रदा और जया बच्चन भी मौजूद थीं. उसी दौरान अमर सिंह ने कहा कि नई पीढ़ी की राजनीति में नई पीढ़ी के एक नेता की भी जरूरत है. उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि ये कल के वोटर हैं.
अमर सिंह ने दोनों बेटियों में से एक से पूछा कि वे टीवी पर कौन सा सीरियल देखती हैं. जवाब था- हैना मॉन्टेना. इस पर अमर सिंह ने कहा, ”देखिए, अखिलेश की बेटियां भी इसी उम्र की होंगी और अपने बच्चों के जरिए उनको पता होगा कि युवा क्या देखते और चाहते हैं.” यह कहते हुए उन्होंने पार्टी अध्यक्ष के तौर पर अखिलेश के नाम का प्रस्ताव दिया. मुलायम सिंह को छोड़कर सभी अमर सिंह के इस प्रस्ताव पर सहमत हो गए. हालांकि, मुलायम ने कहा कि वह पार्टी के विचारक जनेश्वर मिश्रा से सलाह लेंगे. जब मिश्रा से इस बारे में सलाह मांगी गई तो उन्होंने अखिलेश के समर्थन में तुरंत हामी भर दी. यह किस्सा ‘द कंटेंडर्स: हू विल लीड इंडिया टुमॉरो’ किताब में दिया गया है.
साल 2009 में अखिलेश को समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. यह पद संभालने के बाद ही अखिलेश ने तत्कालीन मायावती सरकार के खिलाफ जंग तेज कर दी. उन्होंने संगठन को मजबूत बनाने और युवाओं को भी अहम जिम्मेदारी सौंपने की दिशा में काम किया.
अपनी राजनीतिक यात्रा के शुरुआती दौर में अखिलेश ने जो गतिविधियां कीं, उनके चलते उन्होंने कम समय में ही राष्ट्रीय मीडिया तक का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया. उन्होंने अपने पिता की लीक से हटकर दागी और विवादित छवि वाले नेताओं से दूरी बनाने के संकेत दिए. अखिलेश ने पार्टी के चुनाव चिह्न ‘साइकिल’ का प्रचार करने के लिए साइकिल यात्राएं करनी शुरू कीं. अच्छी अंग्रेजी बोलने में सक्षम होने के बावजूद उन्हें अंग्रेजी चैनलों तक से बातचीत करते हुए भी हिंदी में बोलते देखा गया. वह अपनी युवा छवि को भुनाते हुए तकनीक को भी बढ़ावा देने की दिशा में आगे बढ़े.
साल 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश ने पार्टी में नई जान फूंकने के लिए ‘क्रांति रथ’ से एक बड़ी यात्रा शुरू की. इस ‘रथ’ के साथ चलने वाले पार्टी कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे, ”तख्त बदल दो, ताज बदल दो, बेईमानों का राज बदल दो.” इस ‘रथ यात्रा’ की टैगलाइन थी, ”विकास की गंगा बहाने को, अब भ्रष्टाचार मिटाने को, क्रांति रथ पर होकर सवार, निकल पड़ा है समाजवाद.”
जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो अखिलेश की कोशिशें बखूबी रंग लाते हुए दिखीं. समाजवादी पार्टी ने 403 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में 224 सीटें जीतकर पहली बार अपने दम पर बहुमत हासिल किया. साल 2017 में औपचारिक तौर पर समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों में आ गई, जब वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए.
अखिलेश के सामने बड़ी चुनौती क्या है?
उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश यादव के सामने चुनौतियों की कमी नहीं रही. राज्य की सत्ता में समाजवादी पार्टी के रहने के वक्त से ही अखिलेश के लिए शुरू हुआ सियासी झटकों का सिलसिला अब तक कुछ खास थमा नहीं है. मुख्यमंत्री बनने के बाद उनको पहला बड़ा झटका तब लगा था, जब 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी की 80 में से 71 सीटें जीत लीं और एसपी के खाते में महज 5 सीट ही आईं.
इसके बाद अखिलेश को दूसरा बड़ा झटका तब लगा, जब साल 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन में उतरी समाजवादी पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. इस चुनाव में एसपी 311 विधानसभा सीटों पर लड़ी थी, जिनमें से उसे महज 47 पर ही जीत हासिल हुई.
हालांकि, इस चुनाव से पहले अखिलेश को अपने 5 साल के कार्यकाल में किए गए कामों पर इतना भरोसा था कि उन्होंने अपनी चुनावी टैगलाइन ही बना दी- काम बोलता है.
इस टैगलाइन के साथ समाजवादी पार्टी बेहतर कानून व्यवस्था, इन्फ्रास्ट्रक्चर के मोर्चे पर विकास, युवाओं को लैपटॉप देने, लोहिया ग्रामीण आवास योजना के जरिए पक्के घर देने जैसे कामों को गिना रही थी. मगर सियासी समीकरण इस तरह से बीजेपी के पक्ष में बने कि एसपी के लिए यह कुछ भी काम नहीं आया.
साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की रणनीति भी एसपी के काम नहीं आई और इस चुनाव में भी उसके खाते में 5 सीटें ही आईं. इन 5 सीटों में से एक सीट (आजमगढ़) पर खुद अखिलेश ने जीत दर्ज की.
हालिया जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख चुनाव में भी एसपी का प्रदर्शन बीजेपी के सामने कमजोर रहा है. हालांकि, एसपी ने बीजेपी पर गुंडागर्दी के दम पर ये चुनाव जीतने के आरोप लगाए. फिर भी पिछले कुछ चुनावों के नतीजों के बाद एसपी एक नाजुक मोड़ पर खड़ी है. ऐसे में अखिलेश के सामने बड़ी चुनौती यह है कि वह एक बार फिर 2012 की तरह खुद को साबित करते हुए जमीनी स्तर तक पार्टी में नई जान फूंकें.
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