Mulayam Singh Yadav Death news: सियासत शह और मात का खेल है और जब आज मुलायम सिंह यादव अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गए हैं, तो उनकी चरखा दांव वाली राजनीति फिर चर्चा में आ गई है. आजादी के बाद जब भी भारत की लोकतांत्रिक राजनीति का जिक्र आएगा, तो मुलायम सिंह यादव का नाम पहली कतार के नेताओं में शुमार किया जाएगा. मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति की वह खूबसूरत तस्वीर हैं, जो समय-समय पर यह भरोसा दिलाती रहती है कि कोई आम सा शख्स यहां आकर छा सकता है, लोगों के दिलों पर लंबे समय तक राज कर सकता है. ऐसे ही आम से खास बनने वाली कहानी का नाम है मुलायम सिंह यादव. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक दांव-पेच इतने जटिल रहे कि उन्होंने न सिर्फ विरोधियों, बल्कि साथियों को भी कई बार चौंकाया.
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Mulayam Singh Yadav life story: मुलायम कभी टिक कर किसी के साथ नहीं रहे और उन्होंने राजनीतिक कौशल से करीब-करीब हमेशा ही अपनी राजनीति को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की. मुलायम ने सियासत के मौके नहीं चूके और जब चूके तो ऐसा चूके कि हाथ में आया प्रधानमंत्री का पद अचानक से फिसल गया. आइए आज आपको मुलायम की सियासत के इसी चरखा दांव से जुड़े ऐसे किस्से बताते हैं, जिन्होंने अपने वक्त में प्रदेश और देश की सियासत ही बदल दी.
पहले चौधरी चरण सिंह के करीब रहे फिर छोड़ दिया अजीत सिंह का साथ
लोहिया की समाजवादी पाठशाला से मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav Political Journey) ने राजनीति का ककहरा सीखा. बाद के दिनों में मुलायम सिंह यादव को चौधरी चरण सिंह की लोकप्रियता का सहारा मिला. 1970 के दशक में देश और प्रदेश में गैर कांग्रेसवाद की सियासत तेज थी. यूपी में इसका चेहरा चौधरी चरण सिंह थे. मुलायम तब चौधरी चरण सिंह के साथ आए और लोकदल का हिस्सा बने. हालांकि 1986 में जब चौधरी चरण सिंह बीमार पड़े, तो मुलायम को आगे की सियासत की अलग राह दिखने लगी.
चौधरी चरण सिंह जब बीमार रहने लगे, तो उन्होंने हेमवंती नंदर बहुगुणा पर भरोसा जताया और बहुगुणा लोकदल की कमान संभालने लगे. यहीं से मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में अपना पाला बदला. रीता बहुगुणा जोशी और राम नरेश त्रिपाठी की किताब ‘हेमवंती नंदन बहुगुणा: भारतीय जनचेतना के संवाहक’ में उस समय की राजनीति का जिक्र है. इसके मुताबिक चौधरी चरण सिंह के बीमार पड़ने के बाद पार्टी में विवाद चलने लगा. इसी बीत 29 मई 1987 को चौधरी चरण सिंह का निधन हो गया. इसके बाद उनके बेटे अजीत सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की कोशिशें हुईं. 1 जून 1987 को अजीत समर्थकों ने दिल्ली में एक सम्मेलन बना उन्हें अध्यक्ष घोषित कर दिया.
पर खेल यहीं खत्म नहीं हुआ. इस खेल में मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं के दांव पेच की एंट्री होनी थी. किताब के मुताबिक यूपी से मुलायम सिंह यादव, बिहार से कर्पूरी ठाकुर, हरियाणा से देवी लाल, राजस्थान से नाथूरम मिर्धा बहुगुणा के साथ थे. इसके बाद लोकदल दो धड़ों में बंट गया. लोकदल (अजीत) और लोकदल (बहुगुणा). मुलायम सिंह यादव ने एक वक्त के अपने सियासी गुरु चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह का साथ नहीं दिया और लोकदल (बहुगुणा) के यूपी चीफ बन गए. मुलायम सिंह यादव तबतक शायद यह बात भूल चुके थे कि जब 1980 में इंदिरा लहर में वह अपना विधानसभा चुनाव हार गए थे तब चौधरी चरण सिंह ने उन्हें न सिर्फ विधान परिषद का सदस्य बनाया बल्कि वह सदन में नेता प्रतिपक्ष भी चुने गए थे.
फिर मुलायम ने हेमवंती नंदन बहुगुणा को भी दिखाया चरखा दांव
सियासत में आगे कैसे बढ़ना है, यह मुलायम सिंह यादव को बखूबी पता था. एक बार फिर उन्होंने पर्फेक्ट टाइमिंग की तलाश की और इस बार का चरखा दांव बहुगुणा पर ही चला. असल में हुआ यह कि देवीलाल और बहुगुणा के संबंध छीक नहीं रह गए. उधर कांग्रेस के खिलाफ फिर से सारे विपक्ष को एक करने की कवायद चल रही थी. किताब ‘हेमवंती नंदन बहुगुणा: भारतीय जनचेतना के संवाहक’ के मुताबिक तब लोकदल (बहुगुणा) के विलय की बात आई. मुलायम और नाथखुरा मिर्धा इसके पक्ष में नहीं थे. इसी बीच देवीलाल के प्रयासों से दिल्ली में जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) का संयुक्त अधिवेशन हुआ.
मुलायम सिंह यादव ने सुबह बहुगुणा से भेंट की और आश्वासन दिया कि वह अधिवेशन में शामिल नहीं होंगे. पर बाद में मुलायम अधिवेशन का हिस्सा बने. किताब के मुताबिक देवी लाल और जॉर्ज फर्नांडिस के प्रयासों की वजह से मुलायम को झुकना पड़ा. और उधर बहुगुणा अकेले रह गए.
अब बारी थी वीपी सिंह का साथ छोड़ने की
मुलायम सिंह यादव की सियासत तो ठहरनी वाली थी नहीं. असल में हुआ यह कि संयुक्त अधिवेशन के बाद 28 जुलाई 1988 को ‘समाजवादी जनता दल’ की घोषणा हुई. इसमें जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) का विलय हुआ. उसी साल 11 अक्टूबर को बेंगलुरु में हुए एक अधिवेशन में इसे ‘जनता दल’ नाम दिया गया. यहां वीपी सिंह नेता बनाए गए और 1989 के चुनाव में कांग्रेस को केंद्र और यूपी दोनों की सत्ता गंवानी पड़ी. केंद्र में वीपी सिंह पीएम बने और प्रदेश में मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई. खास बात यह कि तब इस सरकार को बीजेपी और लेफ्ट, दोनों का ही समर्थन मिला हुआ था.
पर देश के सियासी हालात तेजी से बदल रहे थे. 2 दिसंबर 1989 से जब वीपी सिंह की सरकार ने काम करना शुरू किया, तो मंडल कमीशन की सिफारिशों की दबी हुई फाइल भी बाहर निकली. अगस्त 1990 में वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया. उधर, रथयात्रा निकाल रहे आडवाणी की बिहार में गिरफ्तारी भी हो गई. बीजेपी ने विरोध में वीपी सिंह सरकार से समर्थन खींच लिया. केंद्र की वीपी सरकार तो आखिरकार गिर गई, लेकिन प्रदेश में मुलायम ने फिर चरखा दांव से अपनी सरकार बचा ली.
हुआ यह कि 7 नवंबर की रात को वीपी सिंह सरकार संसद में विश्वास मत नहीं हासिल कर पाई. इसके अगले ही दिन जनता दल में टूट हो गई. तब मुलायम सिंह यादव ने चिमनभाई पटेल को साथ लेकर चंद्रशेखर का साथ दिया. कहते हैं कि तब करीब 40 सांसद चंद्रशेखर के साथ थे. कांग्रेस ने सहयोग कर दिया. प्रदेश में मुलायम की सत्ता बची रही और देश में चंद्रशेखर की सत्ता आ गई. वीपी सिंह इस बार चरखा दांव के शिकार बने थे.
फिर मुलायम ने सोनिया गांधी को अपने दांव से चौंकाया
अक्सर हमने यही किस्से सुने हैं कि मुलायम ने मनमोहन की सरकार बची ली या ये कि कैसे अखिलेश और राहुल चुनावी गठबंधन में आए. इन खबरों से हमें यह एहसास होता है कि कांग्रेस के साथ नेताजी के हमेशा सकारात्मक संबंध रहे. पर ऐसा है नहीं. कम से कम सोनिया गांधी को तो इस बात का बखूबी अंदाजा होगा. हालांकि ये बात दिगर है कि मुलायम सिंह के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सोनिया गांधी ने कहा कि देश के संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए जब भी जरूरत पड़ी, उनका (मुलायम सिंह यादव का) साथ हमेशा कांग्रेस को मिला है.’ पर क्या वाकई मुलायम हमेशा कांग्रेस या सोनिया गांधी के साथ रहे?
यह कहानी भी काफी रोचक है. करीब 23 साल पहले मुलायम सिंह यादव ने एक ऐसा दांव चला था, जिससे सोनिया गांधी के पीएम बनने का उम्मीद चकनाचूर हो गई. इस दांव में चाहे-अनचाहे उनका साथ दिया था एनसीपी सु्प्रीमो और तब कांग्रेस के नेता शरद पवार ने. 1999 में सोनिया गांधी नई-नई कांग्रेस की अध्यक्ष बनी थीं. वाजपेयी सरकार लोकसभा में विश्वासमत खो चुकी थी. तब सोनिया गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायण ने मुलाकात के बाद पत्रकारों से कहा कि उनके पास 272 सांसदों को सपोर्ट है और उन्हें विश्वास है कि यह संख्या और बढ़ेगी.
पर मुलायम सिंह यादव के मन में अलग ही योजना चल रही थी. मुलायम सिंह यादव पीएम पद के लिए सोनिया गांधी के समर्थन के पक्ष में नहीं थे. उस वक्त सपा के पास 20 सांसद थे. उन्होंने एक तरफ तो ज्योति बसु का नाम आगे कर दिया. इसके एक महीने बाद शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा दिया. बाद में 15 मई 1999 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में बगावत हो गई और शरद पवार ने अन्य नेताओं के साथ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन कर लिया. और सोनिया गांधी पीएम बनते-बनते रह गईं.
मुलायम के दांव से पलटी इस सियासत का जिक्र लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ में भी किया है. आडवाणी ने इसमें बताया है कि जॉर्ज फर्नांडीस मुलायम सिंह यादव को लेकर आए थे. तब मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि वह सोनिया गांधी के पीएम बनने में सहयोग नहीं देंगे. मुलायम ने शर्त रखी थी कि तब एनडीए भी सरकार बनाने का दावा नहीं करेगा और बीजेपी लोकसभा भंग कर देगी.
हालांकि यह भी एक तथ्य ही है कि इसके बाद 2004 में मुलायम यूपीए की मनमोहन सरकार के भी साथ आए. बाद में उन्होंने अमेरिका संग होने वाले न्यूक्लियर पैक्ट के दौरान मनमोहन सिंह की सरकार बचाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. ऐसे में आज जब मुलायम सिंह यादव हमारे बीच नहीं हैं, तो उनकी इस रंग-बिरंगी और दांव-पेच वाली सियासत के किस्से सुने और सुनाए जा रहे हैं. मुलायम सिंह यादव अपनी इन्हीं सियासी खूबियों के चलते भारतीय सियासत के सबसे माहिर खिलाड़ियों में से एक समझे जाते रहे.
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