उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कई नेता पाला बदलकर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का साथ छोड़कर मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (एसपी) की तरफ चले गए हैं. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या ये नेता एसपी चीफ अखिलेश यादव के लिए चुनावी नतीजों में मददगार साबित होंगे या फिर उनके लिए एक बोझ बनकर रह जाएंगे. चलिए इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश करते हैं.
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किसी जाति से नेता होने और उस जाति के निर्विवाद नेता होने के बीच अंतर होता है. उत्तर प्रदेश में कुछ नेता जाति समूहों के निर्विवाद प्रभुत्व का गंभीरता से दावा कर सकते हैं. जैसे कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह की विरासत के चलते यादवों के निर्विवाद नेतृत्व का दावा कर सकते हैं.
इसी तरह, मायावती जाटवों की निर्विवाद नेता हैं, और चौधरी अजीत सिंह ने अपने पिता चरण सिंह से जाट नेतृत्व की अहम विरासत को आगे बढ़ाया, जिसे अब उनके बेटे जयंत भी अच्छी तरह से निभा रहे हैं.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो, नेतृत्व की साख बनाने के लिए जमीनी स्तर पर सक्रियता और चुनाव लड़ते हुए सालों का वक्त लगता है. इसके प्रमुख उदाहरणों में बीएसपी के कांशीराम और अपना दल के सोनेलाल पटेल शामिल हैं. उन्होंने अपने वोटरों के बीच अपने संगठनात्मक आधार और मूल समर्थन को बढ़ाने के लिए चुनाव के बाद चुनाव लड़ा. उन्हें अपने वोट शेयर को एक ऐसी निश्चित सीमा तक लाने में लगभग दो दशक लग गए, जहां किसी भी गठबंधन में शामिल होने के बाद उसे एक मल्टीप्लायर इफैक्ट दिया जा सके.
कांशीराम की बीएसपी ने 1993 में मुलायम सिंह यादव के साथ हाथ मिलाने पर ‘मल्टीप्लायर इफैक्ट’ को साबित किया. उन्होंने मिलकर, निर्विवाद हिंदुत्व चैंपियन कल्याण सिंह के चेहरे वाली बीजेपी को रोका, यहां तक कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के चरम सीमा वाले माहौल में भी. 1993 के चुनाव 6 दिसंबर 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के ठीक बाद हुए थे, और यकीनन 1947 के विभाजन के बाद साम्प्रदायिक रूप से सबसे खराब माहौल में हुए थे. फिर भी, वे सामाजिक गठबंधन के कारण बीजेपी को हराने में सफल रहे.
मायावती के नेतृत्व में, बीएसपी इस गेम को एक अलग स्तर पर ले गई जब, 2007 में मुख्यमंत्री बनने के बाद, वह दलितों और उत्तर प्रदेश की निर्विवाद नेता बन गईं. उस वक्त ‘अपर कास्ट’ के हिंदुओं, विशेष रूप से ब्राह्मणों ने समाजवादी पार्टी की हार सुनिश्चित करने के लिए उन्हें वोट दिया था क्योंकि उस दौरान बीजेपी को सत्ता की लड़ाई से बाहर ही माना जा रहा था.
इसी तरह, सोनेलाल पटेल के अपना दल ने अपने कुर्मी नेतृत्व को तैयार करने की कोशिश की, मुश्किल समय में बीजेपी के साथ करीबी दिखाई, और आखिरकार सफलता का स्वाद चखा, जब उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने नरेंद्र मोदी की लहर में अपनी लोकसभा सीट जीती और केंद्रीय मंत्री बनीं. पूर्वी यूपी में बीजेपी की गणना में वह अहम हो गईं, यह इस तथ्य से भी पता चलता है कि वाराणसी लोकसभा सीट के 5 में से 2 विधानसभा क्षेत्र अपना दल के गढ़ हैं और नरेंद्र मोदी के भारी जीत के अंतर में इस पहलू की बड़ी भूमिका रही.
सालों से, इन चार पार्टियों ने चुनावी रूप से साबित हुआ जाति-केंद्रित समर्थन आधार विकसित किया है. एसपी (यादव), आरएलडी (जाट), बीएसपी (दलित) और अपना दल (कुर्मी) के पास साबित हो चुका चुनावी आधार है, जिस पर वे बिना किसी शक के भरोसा कर सकती हैं. बीजेपी और कांग्रेस ही यूपी में ऐसी पार्टियां हैं जिनकी किसी जाति समूह विशेष पर निर्भरता नहीं है. भले ही बीजेपी की ब्रांडिंग दशकों से “ब्राह्मण-बनिया” पार्टी के रूप में हुई है, लेकिन यह बात सच्चाई से इतनी दूर थी कि बीजेपी रैंक और फाइल में बड़ी संख्या में ओबीसी नेताओं को मीडिया और विश्लेषकों की ओर से उचित सराहना नहीं मिली.
कल्याण सिंह हिंदुत्व के प्रतीक थे, लोध मतदाताओं पर उनका काफी अच्छा प्रभाव था, और उन्हें राज्यभर में बड़ी संख्या में आरएसएस की ओर से तैयार किए गए ओबीसी नेताओं का समर्थन हासिल था. जब उन्होंने बीजेपी छोड़कर और अपनी पार्टी बनाई, तो वह अपने साथ लगभग 6 फीसदी वोट भी ले गए, और बीजेपी को एक ऐसा लोकप्रिय पीएम फेस मिलने से पहले लगभग 15 साल तक इंतजार करना पड़ा, जिसने स्पष्ट रूप से ओबीसी वोटों को अपने ओबीसी क्रेडेंशियल का जिक्र किए बिना भी प्रभावित किया.
कल्याण सिंह और नरेंद्र मोदी के बीच बेहद सौहार्दपूर्ण संबंधों ने सुनिश्चित किया कि पहले के हिंदुत्व चैंपियन की पूरी राजनीतिक पूंजी नए हिंदुत्व चैंपियन को स्थानांतरित हो गई और यह पिछले सात सालों से बरकरार है.
कभी-कभी ऐतिहासिक संदर्भ मौजूदा वक्त की घटनाओं को समझने के लिए सबसे अच्छी पृष्ठभूमि के तौर पर काम करता है. पिछले कुछ वक्त में यूपी बीजेपी ने स्वामी प्रसाद मौर्य और ओपी राजभर जैसे ओबीसी नेताओं की ओर से झटकों का सामना किया है. ऐसे नेताओं के बीजेपी के पाले से एसपी की तरफ जाने से राज्य के आगामी चुनाव को लेकर अटकलों को बढ़ावा मिला है. इस बीच मुख्य सवाल यह है कि क्या ये नेता बीजेपी और उसे प्रमुख चुनौती देने वाली एसपी के बीच वोटों के अंतर को भरने के लिए पर्याप्त भूमिका निभा सकेंगे?
इस सवाल का जवाब एक और सवाल से जुड़ा है: क्या इन नेताओं ने मोदी को यूपी में एक के बाद एक तीन चुनाव जिताए या फिर इन नेताओं के बीजेपी में शामिल होने के बाद मोदी लहर ने ही उन्हें उनकी सीटें जिताने में मदद की? या स्वामी प्रसाद मौर्य के मामले में, और भी बेहतर सवाल यह है कि क्या उन्होंने मायावती को 2007 का चुनाव जिताया या मायावती की लोकप्रियता ने उन्हें उनकी सीट पर जीत दिलाई?
स्वामी प्रसाद मौर्य अपने तीन दशक लंबे राजनीतिक जीवन में छह अलग-अलग राजनीतिक दलों में रहे हैं. क्या पिछले पांच मौकों पर उनके दल-बदल ने कोई सुर्खियां बटोरीं? क्या कुछ साल पहले बीजेपी में उनकी एंट्री ने उस मामले पर कोई सुर्खियां बटोरीं? इसी तरह के सवालों के जवाब ओम प्रकाश राजभर, या किसी अन्य ऐसे “जाति के नेता” के मामले में तलाशने की जरूरत है, जो अब बीजेपी के साथ नहीं हैं. सामान्य नियम यह है: अगर कोई इन नेताओं के नामों को मीडिया में बड़े समय से जानता था या उन पर चर्चा करता था, जब वे कुछ साल पहले बीजेपी में शामिल हो रहे थे, तो उनके पास निश्चित रूप से एक आधार है. अगर नहीं तो आपके पास इसका जवाब है.
मौजूदा वक्त में, जिन नेताओं ने पाला बदल लिया है, वे कुछ जिलों को छोड़कर बाकी जगह प्रभावशाली नहीं हैं. इसलिए, पूरे राज्य में वोट ट्रांसफर करने की उनकी क्षमता संदिग्ध है. हालांकि, अगर अधिकांश जिलों से बड़ी संख्या में ऐसे नेताओं ने पाला बदला, तो सबके प्रभाव को मिलाकर एक बड़ा असर हो सकता है. हालांकि, भाई-भतीजावाद, अस्पष्ट विचारधारा और अपनी ही जातियों के भीतर चुनौती जैसे पहलू भी इन नेताओं के चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता को नियंत्रित करते हैं.
उदाहरण के लिए, कई मौजूदा विधायक जिन्होंने पाला बदला है, उन्हें बीजेपी से टिकट मिलने पर भरोसा नहीं था. साथ ही, इनमें से अधिकतर नेताओं की दूसरे राजनीतिक दलों से सीधी एंट्री हुई थी, ऐसे में वे बीजेपी के मूल कैडर का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे. असल में, बीजेपी के भीतर कुछ लोग ऐसे नेताओं को वैचारिक अनुकूलता की परवाह किए बिना एंट्री देने की नीति पर सवाल उठाते हैं.
एक अन्य सिद्धांत, जिस पर चर्चा की जा रही है, वह है कुछ नेताओं की किसी और से पहले सियासी हवा के रुख को समझ लेने की क्षमता. ऐसे राजनेता का एक प्रमुख उदाहरण दिवंगत रामविलास पासवान हैं, जिनका जिक्र जीतने वाले पक्ष के साथ चले जाने के लिए होता है. हालांकि, उन्होंने भी, लालू प्रसाद यादव के साथ, 2009 के चुनाव को पूरी तरह से गलत पढ़ा और चुनाव के बाद बेहतर नेगोशिएशन करने के लिए कांग्रेस को अपने समीकरण से बाहर करने का फैसला किया. हालांकि नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए और इन दोनों “मौसम वैज्ञानिकों” को यूपीए की ओर से दरकिनार कर दिया गया.
इसलिए जमीनी हकीकत में बदलाव के लिए राजनीतिक विकल्पों की कमी को पढ़ना भूल होगी. इन ओबीसी नेताओं की अपनी निजी गणनाएं हैं, जो उनके राजनीतिक भविष्य के साथ करीब से जुड़ी हुई हैं. सीधे शब्दों में कहें तो, शायद एक स्वामी प्रसाद मौर्य का उस बीजेपी में कोई भविष्य नहीं होता, जिसमें उन्हीं के समुदाय के एक बड़े नेता हैं (उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य). इसके अलावा, कैडरों का जमीनी दबाव यह सुनिश्चित करता है कि बीजेपी को हमेशा सक्रिय नेताओं के परिवार के सदस्यों को समायोजित करने में मुश्किल होती है. यह भी एक अहम गणना है और शायद उन पार्टियों की तलाश के पीछे मकसद है जो परिवार के सदस्यों को उतारने के लिए आसानी से तैयार हों.
वास्तव में, अगर मौजूदा विधायकों की ओर बगावत और दल-बदल राजनीतिक ट्रेंड को समझने का आधार होते, तो निश्चित रूप से बीजेपी को पश्चिम बंगाल जीतना चाहिए था. बंगाल चुनाव से पहले बीजेपी तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं को अपने पाले में लाने में सफल रही. हालांकि, इनमें से अधिकांश नेता एक जवाबदेही साबित हुए क्योंकि बीजेपी के हारने के बाद वे वापस चले गए. इसके अलावा, ऐसे नेताओं की एंट्री ने उन कार्यकर्ताओं को नाराज कर दिया, जिन्होंने जमीनी स्तर पर सालों तक कड़ी मेहनत की थी. लगता है कि अखिलेश यादव वही गलती कर रहे हैं, जो बीजेपी ने बंगाल में की थी.
सामाजिक तानेबाने में देखे गए गतिशील संतुलन को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, अगर एक जाति या सामाजिक समूह को राजनीतिक शक्ति के अनुपातहीन हिस्से पर कब्जा करने वाला माना जाता है, तो बाकी सामाजिक समूह उसे बेअसर करने के लिए काउंटर-पोलराइजेशन करते हैं. इसलिए, कुछ ओबीसी जातियों के एकजुट होने के बारे में एक प्रचार वास्तव में काउंटर-पोलराइजेशन को गति दे सकता है.
इंद्रधनुषी सामाजिक तानेबाने सबसे अच्छी तरह से कॉमन सर्विस डिलीवरी की राजनीति के इर्द-गिर्द बनते हैं, जहां किसी खास सामाजिक समूह को विशेषाधिकार हासिल नहीं होता. बीजेपी प्रभावी ढंग से माइक्रो-वेलफेयर के विषय पर जोर देकर ऐसा कर रही है जो अंतर या भेदभाव नहीं करता है. जहां पीएम मोदी और सीएम योगी की लोकप्रियता से नेतृत्व का लाभांश मिलता है, वहीं बीजेपी की चुनावी ताकत का मूल हिस्सा कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ एक सामाजिक तानाबाना बनाने में निहित है. ऐसे में विपक्ष का सबसे अच्छा दांव अवसरवादी दल-बदल पर भरोसा करने के बजाय उसका मुकाबला करने से जुड़ा हो सकता है.
स्थानीय रूप से शक्तिशाली नेताओं के दल-बदल से एक या दो सीट अतिरिक्त जीतने में मदद मिल सकती है, लेकिन यह यूपी में राजनीतिक समीकरण को मौलिक रूप से नहीं बदलेगा. कुल मिलाकर बात यह है कि बीजेपी का सामाजिक तानाबाना मौजूदा वक्त में एसपी के सामाजिक तानेबाने से ज्यादा मजबूत है. ऐसे में एसपी के लिए जीत की राह एक व्यापक सामाजिक तानेबाने के निर्माण में होगी, इस मोर्चे पर उसके लिए दल-बदल की राजनीति मददगार साबित नहीं होगी.
(यशवंत देशमुख पोलिंग एजेंसी CVoter के फाउंडर-एडिटर हैं. मनु शर्मा CVoter में सीनियर एडिटर हैं. इस लेख में दिए गए विचार व्यक्तिगत हैं.)
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